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(४७) जिस वस्तुका वह वाकई खण्डन करते है वह वास्तव में जैन सिद्वान्त नहीं है जैसा कि जैनी लोग समझते हैं बलिक स्वयं उनकी मनमानी कल्पनायें है जो जैनमतके बारेमें उन्होंने गढ़
इम इस प्रकार यह परिणाम निकालते हैं कि दोनो थर्मा में अधिक प्राचीनताका प्रभ जैनमतके हफमें फैसला होना चाहिये, और यह कि पूज्य तीर्थंकरोंका मत हिन्दु मतकी पुत्री या झगड़ालू संतान होने के बजाय वास्तवमें स्वयं उन निस्स.
* यह आशका कि वेदोंकी भाषा जैन शास्त्रोंकी मापासे शताब्दियों पहिलेकी जान पड़ती है, व्यर्थ है क्योंकि प्राचीन कालमें मनुष्य अपने शास्त्रोंको कण्ठस्थ करके सुरक्षित रखते थे। जैनमत और हिन्दू मतके शास्त्र भी प्रथम इसी विधिसे सुरक्षित थे. और लेखनकलाका प्रयोग अभी कुछ काल पूर्व के ऐतिहासिक समयमें हुआ है परतु वेद कवितामें लिखे गये हैं जिसका अभिप्राय यह है कि वेदोंकी भाषा सदैव के लिये नियत हो गई, जिसमें परिवर्तन नहीं हो सक्ता इसलिये वे सदैव अपने रचनेके समयको ही दर्शायेंगे । विला लिहाज इस अमरको, वह कर लिखे जायें । यह पात जैनमतमें नहीं पाई जाती है, जिसके शास्त्रोंकी भाषा सदैवके दिये नियत नहीं है। अतएव जिस मापामें जैनतिद्धात लिये गये हैं वह वही भाषा है जो उनके लेखनसमयमें प्रचलित श्री। जैनमतके सम्बध में भाषाकी जांच इस कारण असफल होती है और उसकी प्राचीनताका भनुमान विपक्षी धर्मों के शास्त्रोंकी आंतरिक साक्षी द्वारा ही हो सका है।