Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 57
________________ (४८ ) देह प्राचीन धर्मका प्राधार है। बुनासा यह है कि हिंदू धर्म अपनी उत्पत्ति के लिये उन तोय कुशलताबाले कवियोका कृतज्ञ है जिन्होंने अपनी अपरिमित उत्तेजना जागमे प्रारमा की अप्रगट और दैवी शक्तियोंको काव्यविचारमें व्यक्तिगत चांधा। उह यहशी न थे और न उनके लेखों में कोई पेनी शानण्य या वहशियाना बेसक्लीकी बात पाई जाती है जिसके कारण यह कहा जासके कि उस समयके मनुष्य अशो वधापनमें मुन्तिला थे। इसके विपरीत उनका बान जेनमत के अखण्ड सिद्धान्त पर निर्भर था जो तीर्थंकरों से निकली हुई शुतिके श्राधार पर स्थापित है। समयकी गतिने माता और पुत्रीमें पूरा वियोग पंदा कर दिया। योर पुत्रो पचात् को दुष्टोंके हाथमें पड़ गई। उसका परिणाम नाना प्रकारको पापकी संतान (योंकी रीति) हुप जिप्सको उपने किसी भयानक प्रभावके कारण जना । इसके बाद वह उपनिषद के रचनेवाले ऋषियोंकी रक्षामें जगजोंको तनहाई में पश्चात्ताप करती हुई मिलती है, और फिर इसके बाद हम उसको बुद्धिमत्ताके विश्वविद्यालयमें अपने के नये और मुख्तलिफ़ मगर Ill fitting (अयोग्य) गोनो (चीरों) को सम्भालते हुए पाते हैं। और अब जब कि आधुनिक खोजकी X-ray प्रबल बुद्धिमत्ता उसके निहायत अमूल्य और मनभावने श्राभूषणोंको प्रारम्भिक मनुष्य के हनुमान - जातिसे निकलनेके *'संसारकी प्रहेलिका विकासवादियोंको सदैव उस समय तक हतो

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