Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 54
________________ ( ४५ ) अनिश्चितपनको अपने धर्मसे दूर करनेकी कोशिश की और अज्ञान और मिथ्या विश्वास के प्रन्ध कूपको बहुत कुछ तोड़ा, परन्तु वुद्धिमत्ता की मशाल, जिसको उन्होंने प्रज्वलित कियाउसकी प्रभा, मालूम होता है कि केवल टिमटिमाके तौर पर ही रही । उपनिषद् भी गुप्त चिन्हवादले विल्कुन्त वञ्चित नहीं हैं और उनका प्रकाश न तो उनके मत सर्व रे कुओं में ही पहुंचता है और न वह सदैव अन्धकार से भिन्न हो पाया जाता है । षट् प्रसिद्ध दर्शन भी जो उपनिषदों के कालके पश्चात् बने, परस्पर एक दूसरेके खण्डन करने में ही अपनी शक्तिको नष्ट कर देते हैं और संसारसम्बन्धी वातोंकी मुख्तलिफ और मुखालिफ व्याख्या करते हैं । केवल एक वात, जिसमें वह सब सहमत हैं, वेदोकी ईश्वरकृत होनेके कारण अखण्ड सत्यता है । इस प्रकार अपने रहस्यवाद शास्त्रको ईश्वरकृत मान लेनेसे खोज के विशालक्षेत्र से वञ्चित रहने और दृष्टिक्षेत्र के संकुचित होनेके कारण वह सत्य दार्शनिक नयवादको भी न समझ सके और एकरुat marraarth जालमे फंस गये जो सावधानोंको फंसानेके लिये तैयार रहता है । इसका परिणाम यह हुआ कि मानव शकाओं धौर कठिनाइयोंके दूर करनेके स्थानमें जो तत्व ज्ञानका सच्चा उद्देश्य है उन्होंने अपने हो धर्मको पहिलेसे अधिक अनिश्चित * देखो किताबके अंतमें फुट नोट नं ० ५ / -

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