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वैदिक देवता भोका वास्तविक भाव कि उनका व्यक्तित्व केवल काल्पनिक है, लोगोंको मालूम हो गया और इस कारण उनकी उपासनाका प्रचलित रहना असम्भव पाया गया। इस बात से भी कि वर्तमान हिन्दु प्रथा वेदोंमें कहे हुए जानवरों और मनुब्योके वलिदानको पाशविक और नीच कर्म समझती है यही परिणाम उद्धृत होता है। वास्तवमें वलिदान के नियमके सम्बंध में पोछेके लेखकों ने शास्त्रीय वाक्यका भाव बदल कर गूढ़ अर्थ लगाने का प्रयत्न किया है, परन्तु प्राचीन रश्मो और रवाओं से जो आज तक चले आये हैं यह बात स्पष्ट है कि आरम्भमें उस का अर्थ ऐसा न था । यह बात कि उसके रचयिता मांसभक्षी ऋषी ही होंगे विल्कुल प्रत्यक्ष है, क्योंकि कोई सबा शुद्ध आहारी साधु कभी ख्याल में भी अपने लेखको रक्त व मांसके अलंकारसे से, जिनके केवल अर्थही के बारेमें भ्रम नही होसता है वरि जो उसकी स्वाभाविक मनोवृत्तिको भो अवश्य घृणित मालूम होंगे, गन्दा नहीं बनायगा। इस लिये वेदोंका वह प्रङ्ग, जिस में जीवोंके बलिदानका वर्णन है उन व्यक्तियका बनाया हुआ नहीं हो सक्ता है जो तप (अग्नि) को मुक्तिका कारण जानते थे, वल्कि वह पीछेसे किसी बुरे प्रभाव से शामिल हुआ होगा ।
हिन्दूमत के विकासका बहुत स्पष्टता के साथ उपर्युक युक्तियोंके लिहाज से जल्द पता चल सकता है । अलंकारिक शिक्षाके जन्मदाता ऋषियोंकी कल्पना शक्तिमें आत्मिक पूर्णता के प्राप्ति के उपाय के तौर पर, जो उसके दैविक गुणों की प्रशंसा
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