Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 46
________________ ( ३७ ) चुद्धिमान सुधारकको चिन्हादकी, जो कांटछांटको छोड कर एक ही उपाय ईश्वरीय प्रमाण संवधी आशामे सुधार करनेका है सहायता लेनी पड़ी। चुनांचे एक चिन्हाधिन यानी भावार्थका प्राधार वेदवाक्यके अर्थके हेतु दृढ़ा गया, और मुख्य जातिके चलि पशुओंके लक्षणों और उनके नामोंका युक्तिस मावोंके गुप्ताथ कायम करने के लिये प्रयोग किया गया। इस प्रकार मेढ़ा, वकरा, व सांड जो बलि पशुप्रो नीन मुख्य जातिके जीव हैं, आत्माकी कुछ घातक शक्तियोंके, जिनका नाश करना आत्मिक शुद्धताको वृद्धि व मोक्षक हेतु श्रावश्यकीय है, चिन्ह ठहराये गए । यह युक्ति सफल हुई, क्योकि एक पोर तो उसने वेदोंकी आज्ञाको ईश्वरीय पाक्यकी भांति अखण्डित छोडा और दूसरी ओर बलिदानकी अमानुपिक प्रथाको बन्द कर दिया और मनुष्यों के विचारोंको इस विषय में लत्य मार्गकी ओर लगा दिया। लेकिन पापके वीजम जो बोया गया था इतना अधिक फूटकर फैलने शक्ति थी कि वह वलिदान सिद्धान्तके भावार्थ के वदल जानेसे नष्ट न हो सकी। क्योकि तमाम गुप्त शिक्षावाले मोने, जो जान पडता है कि धार्मिक विषयों में सदैव भारतवर्ष में उपस्थित रहस्यवादी मूल शिक्षा पर चलते थे, (यहा उस समय भारतवर्षकी सीमायें कितनी क्यो न हों ) वलिके खून ** देखो 'दि की आफ नालेज' अध्याय आठ ८ - देखो दि फाउटेन ह्यड औफ रिलीजन वा गंगाप्रसाद एम. ए. कृत।

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