Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 47
________________ (३८) द्वारा स्वर्गम जा पहुंचनेकी नवीन पृथाको स्वीकार कर लिया था और वह सहजमेंही एक ऐसी रीतिके छोड़नेके लिये, जिसमें उनको प्रिय भोजन अर्थात् जानवरोका माँस खानेकी करीब २ माफ तौरसे माझा थी, प्रस्तुत नहीं किये जा सके । इस समय हमारे लिये जव कि इतना दीर्घकाल गुजर चुका है, यह सदैव असम्भव नहीं है कि हम प्रवृत्ति और निवृत्तिकी लहरोंका, जो हिन्दुओके विचारों के परिवर्तनसे वाय संसारमें उत्पन्न हुई, पता लगा सकें, परन्तु यह भी नहीं है कि हमारे पास वास्तव में उसके सदृश कोई सबल उदाहरण न हो। यह उदाहरण यहदियोके मतकी शिक्षामें पाया जाता है जिसके वलिदान संबंधी विचारों में जान पड़ता है कि हिन्दुओके भांति परिवर्तन हुये। १ सैमवेल अध्याय १५ श्रायात २२: "क्या खुदावन्दको सोखतनी कुरवानियो और जवीहों में उतनी ही खुशी होती है जितनी कि खुदावन्दकी आवाजकी सुनवाईमे ? देख! पाशा पालन करना वलिदान करनेसे अच्छा है और शुनवा होना मेंढोंकी चरवीसे।" एक प्रचलित रीतिका प्रवल खंडन है। शास्त्रके भावार्थके बदलनेका प्रयत इस वाक्यसे स्पष्ट हो जाता है:"मैं तेरे घरसे कोई वैल नहीं लूंगा और न तेरे वाडेमेंसे चकरा......... अगर मैं भूखा होता तो तुझसे न कहता ... .....क्या मैं बैलोंका मांस खाऊंगा और चकरोंका खून 'पीऊंगा?ईश्वरको धन्यवाद दे और अपने प्राणोंको परमा

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