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की गई, वह सब संबंध रखनेवालोके लिये किसी बुरे प्रभाव वश हुई, क्योंकि जय कि उसका फल उन निरपराध प्राणियों के लिये, जिनका वलिदान देवतानोको देना उस समय नियत टुमा, दुख और कष्ट था। उमने अलि चढ़ानेवाले और उन सबको जो धर्मके नाम पर प्राणिघात करने में तत्पर हुये, दुर्गति और नरकगामी ठहराया, और अन्नतः असली और सत्यवेद पो प्रतिष्ठाको भी गौरवहीन कर दिया।
लेकिन अधिक समझवाले मनुष्य जीव ही इस बातको आन गये कि नलिदानका प्रभाव वास्तविक नहीं वरन् असत्य है, और उन्होंने इस वातको निश्चित कर लिया कि रक्तका बहाना नपनी या बलि-प्राणीको मुचिका कारण कमी नहीं हो सक्ता । परन्तु इस प्रथाको जड़े फैल गई थीं और एक दिनमें नष्ट नहीं हो सक्ती थों। यह बहुत समय प्रतीत हो जानेके पश्चात् हुमा कि वजिदानकी प्रथाके विरोध जो लहर उठी थी उसमें इतनी शक्ति पैदा हो गई कि शास्त्रीय लेखका बदलना अावश्यकाय समझा गया। लेकिन यह कोई सहज वात नहीं थी क्योंकियदि हम एक श्लोकके वारेमें भीशास्त्रीय अखण्ड सत्यताको अस्वीकार कर दें तो रहस्यवादके सिद्धान्तोकी, जिनको प्राक्षाका प्रभाव ईश्वरीय वाक्य पर निर्भर है, नीव विल्कुल खोखती हो जाती है। इसलिये वेदों में कांट छांट करना असम्भव था, और
* देसो फुट नोट न १ पुस्तकके भाखीरमें।