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करके कि वेदों में पशु बधका वर्णन है और योरुपियन विद्वानों के अनुवादोंकी सत्यताको भी अस्वीकार करके इस कठिनाईसे चचना चाहा। परन्तु इस प्रकारका प्रयत्न स्वयम् साती देनेवाली वानो की उपस्थितिमें कारगर नहीं हुआ करता है । प्राचीन प्रचलित गीति रिवाज स्वयं इस बातका प्रमाण है कि वेदोंके अनुयायो वलिदान करते थे । प्राज भी उम्र वर्गीके हिन्दू पाये जाते है जो पशुप्रका बलिदान करते हैं और जिनमे ब्राह्मण यज्ञ करनेवाले (होता) होते हैं । यह बात खुल्लमखुल्ला शाक भोजी मनमे सहन नहीं की जा सकती थी योर इस अमरको सिद्ध करती है कि वर्तमान समयले पूर्वकालमें बलिदानकी रस्म अधिक प्रचलित थी । हिन्दूओ और ब्राह्मणोंमें मांम का खाना कोई असाधारण बात नहीं है, और वह स्वतः ही प्रामाणिक वान है । यह बात नहीं है कि वह लोग मासको छिपा कर खाने है, वरन् जो उसको जाते हैं, वह उसके खाने के कारगा किसी प्रशमे भी अन्य हिन्दुधोंले क्स नहीं समझे जाते हैं, गोकि वहुतमे उसको अपनी इच्छा मे नहीं भी खाते हैं । इस प्रकार गत समयमें सर्व साधारण के भोज्यके तौर पर मांसका स्वीकार किया जाना असम्भव था । मुख्यतया सदाचारके नियमोके कडे पालन और सब प्रकारके हिन्दुओ के जाति व्यवहार के लिहाज से सिवाय उस हालत के कि वह किसी पूज्य आशा द्वारा जो यज्ञशास्त्रोंके अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकनो, प्रचलित किया गया हो। हम इसलिये नतीजा निकालते हैं कि भार्य