Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 40
________________ ( ३१ ) 1 शरावके वन्द होने तक एक शब्द भी मुहसे नहीं निका जता है । जब वह बोलता है तो वह साधारण रीतिसे धीमी और वहुत चली हुई आवाजमें बोलना आरम्भ करता है जो धीरे धीरे असती स्वाभाविक पित्र ( आवाज) तक पहुंच जाती है और कभी कभी उसले उच्च स्वर भी हो जाता है । जो कुछ वह कहता है वह सब ईश्वरीय कथन समझा जाता है और इसी लिये वह उत्तम पुरुष सर्वनाम में बोलता है, मानो वह स्वयं ईश्वर है । यह सब साधारण रीतिले विना किसी आन्तरिक माकुलता या - शारीरिक हिलन जुलनके होता है, लेकिन कभी उसका मुख भया. -नक रूप धारण कर लेता है और भड़क उठने मरीखा -होता है और उसका तमाम शरीर मानसिक शोकसे कम्पायमान हो जाता है, उस पर कंपकंपी चढ़ जाती है, उसके मत्ये पर पसीना आ जाता है, उसके होठ काले पढ कर एंठ जाते है, ग्रन्नमे उसकी आंखो मे आंसुओं की धा राये चहने लगती है गम्भीर कषायो से उनकी छाती उभरने लगनी है, उसकी आवाज रुक जाती है। धीरे धीरे यह हालत दूर हो जाती हैं। इस वेगळे पहिले N · और उसके उपरान्त जितना चार भूखे J वह वहुधा इतना खाना खा जाता पुरुष साधारणतया खा सके हैं। " है इस उदाहरण पर विचार करते हुए, प्रोफेसर डी० एच० इक्ली साहव फरमाते हैं -~-~

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