Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 15
________________ ( ६ ) चले प्राते थे, मालूम थे । यह विशेषतया एक जन सस्प्रदाय था जिसको उनके समस्त बौद्धों और विशेषकर ईसा पूर्वको ६ ठी शताब्दीके २४वें और अन्तिम तीर्थकर महावीरने जो सन् ५६८- ५२६ ईसाके पूर्व हुये, है नियमबद्ध रक्खा था । यह तपस्वियों (साधु) का मत दूरस्य वैकट्रिया और डेसिया (Baktia and Dacia ) के ब्राह्मण धौर वौद्ध धर्मो में जारी रहा जैसे हमारी स्टडी न० ? और सैकड वुक्स आफ दि ईस्ट भाग २२ और ४, (Smady I and S. Books E. Vols xxII & SLV) से ज्ञात होता है ।" अजैन लेखकोंकी, जो प्रथमके २२ तीर्थकरों को ऐतिहासिक पुरुष नहीं मानते हैं, उपर्युक्त सम्मतिया इस वातको पूर्ण तौर से निश्चय कर देती हैं कि जैनधर्म कमसे कम २८०० वर्षसे संसारमें प्रचलित है, अर्थात् महात्मा बुद्ध से ३०० वर्ष पूर्व से । इससे यह सिद्ध होता है कि जैनधर्म किसी प्रकार वौद्ध धर्मकी शाखा नहीं कहा जा सक्ता । अब इन उक्त सिद्ध की हुई वातों से यह प्रश्न अवश्य होसक्ता है कि 'श्राया जैनधर्मका निकासस्थान हिन्दूधर्म है या नहीं ?" कुछ वर्तमान लेखकगण इस धर्मका, ब्राह्मण धर्मसे उसकी वर्णव्यवस्था के विरोध में पुत्रीरूपसे स्थापित होना मानते हैं (देखो दि हार्ट आफ जैनिज्म पृष्ठ ५) । . यह सम्मति इस विचार के प्रधार पर है कि ऋग्वेदको; मानव जातिके प्रारम्भिक शैशव काल 'के भावका संग्रह होनेके कारण, उन सब धर्मोसे, जिनमें बुद्धिम

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