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'एक सामुद्रिक सेनाकी चढ़ाई के बारेमें उल्लेख है कि वह वेड़े . के इव जानेके कारण निष्फल हुई।" - आर्यलोग अपने मनोविनोदके लिये नाचना, गाना तथा नाट्य करना जानते थे। वेदोंमे मृदंगका भी उल्लेख है और अधर्व वेढमें एक मंत्र विशेषतया मृदंगले लिये निर्मित है।
ऐसा वर्णन उन आर्योका है जो वेदोंके निर्माण समयमें हुये हैं। हम उन्हें असभ्य तभी कह सक्ते हैं जब हम उनके गुणों की ओरसे, जिनकी कि एक यथेष्ट सूची उपर्युक्त दोनों लेखोमें दी गई है, आंख मीच लें। तो फिर उस बच्चेपनकोसी उपासनाका जो अग्नि इन्द्र श्रादि देवताोकी की जाती थी, जिनके लिये ऋग्वेदके मन्त्र नियमित हैं, क्या अभिप्राय है ? यह बात अक्ल के विपरीत है कि ऐसे घडे बुद्धिमान् श्रादमियोंको, जैसे कि वेदोंको आन्तरगिक साक्षियोंसे हिन्दु सावित हुये हैं, यह मान ले किवह अक्ल के बारेमें इतने कमजोर थे कि आगको देखकर आश्चर्य वान और भयभीत हो जाते थे और यह कि उन्होने एक ऐसी प्राकृतिक शक्तिके प्रसन्नार्थ, जिसको वह स्वयं वडी ही आसानी से पैदा कर सक्ते थे, बहुतसे मजन बना डाले। वात यह है कि वेदोंके देवता प्राकृतिक शक्तियों के रूपक नहीं है बल्कि जीवशी आत्मिक शक्तियोंके । चूकि आत्माके स्वाभाविक गुणोका भजना आत्माको कर्मों की निद्रासे जगाने का एक मुख्य कारगा है। सानिये ऋग्वेदके ऋषि कवियोने बहुतसे मन्त्रोको श्रात्मक शक्तियोके लिये नियत करके बनाया। ताकि वह आत्मिक गुण