Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 23
________________ 1 ( १४ ) यह कि वह जीव और पुद्गल [ माद्दे ] के संयोग के नियमों और कारणों पर निर्भर हैं जिनमेंसे एकका अभाव भी उसकी सत्ताको विल्कुल नष्ट कर देने के लिये काफी है क्योंकि यह असम्भव है कि किसी निषेधरूपी सत्ताको किसी प्रकार - वांधा जा सके और यह भी असम्भव है कि किसी अनित्य पदार्थको कल्पित, सत्ता न रखनेवाली जंजीरोंसे बांध सकें। वौद्ध मत आत्माकी सत्ता ( नित्यता ) का विरोधी है और - कर्मोके वन्धनका किसी द्रव्यके आधार पर होना नहीं मानता है जब कि प्रारम्भिक हिन्दु धर्म आत्मिक पूर्णताके विज्ञानके विषय में कुछ नहीं बताता है। यह वाक्य स्वतः अपने भावोंको प्रगट करते हैं और इस विचारका विरोध करते हैं कि जैनियों ने अपने विस्तृत सिद्धान्त को इनमेंसे किसीसे लिया हो । यह भी संभव नहीं है कि हम ऐसा कहें कि जैनियोंने हिन्दु प्रोंके या किसी और मतके सिद्धान्तों के आधार पर अपनी प्रणाली स्थापित की। इस किस्म के विचारोंका पूर्णतया खण्डन इन्सा इक्लोपीडिया ऑफ रिज़ोजन ऐन्ड पथिक्स भाग ७ सात पृष्ठ ४७२ से उद्धृत निम्न लिखित वाक्योंसे होता है - SC अब एक प्रश्नका उत्तर देना श्रावश्यकीय है जो ध्यान पूर्वक पठन करनेवाले प्रत्येकके मनमें पैदा होगा यानी कर्म फलास्फीका सिद्धान्त जैसा कि ऊपर उसका वर्णन किया गया है जैनमतका प्रारम्भिक और मुख्य अंश है या नही ? यह प्रत्यक्षमें इतना गूढ़ और वनावटी जान पड़ता है

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