Book Title: Sanatan Jain Dharm
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Champat Rai Jain

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Page 18
________________ । संदेह नहीं है कि ऋग्वेदकी वास्तविक पवित्रतामें पशु बलिदानका । प्रतिवाद है और अजमेध अश्वमेध गोमेध और नरमेघ जैसे स स्कार पीछेसे किसी दूरसमयमें शामिल हुये हैं। यह वात चैटिक अलंकारोंके वास्तविकस्वरूपसे साफ मालूम होती है। विशेषतया 'अग्नि के स्वरूपसे, जो तपका रूपक है क्योंकि तप जो मनुष्य व पशुमेधका पूरा विरोधी है,। और वेदोंके ऐसे वाक्य भी जेसे "भक्षकगण सन्तानरहित हों।" (देखो ऋग्वेद १२१.५) और वे वाक्य भी जिनमें राक्षसों व मांसभक्षकोंको श्राप दिया गया (देखो विलकिन्स हिन्दु माइथालोजी पृष्ठ २७। इस मतकी प्रवल पुष्टि करते हैं । इन यज्ञविषयक वेद विवरणको प्रतिरूपक भी षान्तर करनेका जो घोर प्रयत्न हिन्दुओंने स्वय पीछेसे किया है वह यही दर्शाता है कि हिन्दुओंका हृदय पशुवधसे किस कदर घृणा करता था। यह वात अंधकारमें है कि यज्ञ संपन्धी (वलिदान) विषय वेदों में कैसे मिलाया गया ।हां! केवल यह वात स्पष्ट है कि यह विषय हिन्दू धर्मके यथार्थ भावके विरुद्ध है। और इसलिये किसी बुरे प्रभावके कारण पीछेसे मिला दिया गया है। क्योंकि यह वात वुद्धिगम्य नहीं है कि कोई पवित्र धर्म ऐसे हिंसापूर्ण और कुमाग की ओर लेजानेवाले वाक्योंका प्रचार करे। इस प्रकार हमारा हिन्दू धर्मका दिग्दर्शन पूरा होता है जिससे हमको यह कहने का अधिकार है कि विचार और भाषा की स्पष्टता ( Precision ) किसी समयमें भी इस धर्मके

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