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महासेन राजा की कथा
श्री संवेगरंगशाला मद झरते हाथियों के समूह को, तो किसी दिन अति वेग वाले घोड़े को दौड़ाते नचाते देखता था, किसी समय श्रेष्ठ कोमल काष्ठ से बने हुए सुन्दर रथ के समूह को तो किसी दिन उत्कृष्ट राजा के भाव को जानने वाले महासुभटों को देखता था । इस तरह राज्य धर्म की देखभाल करते हुए भी वह राजा हमेशा आत्मधर्म के निमित्त पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष आदि तत्त्वों को समझाने वाली युक्ति वाले, अनेक विभागों को बताने वाले, संसार के स्वरूपों को सूचित करने वाले और सभी दोषों का नाश करने वाले आगम शास्त्र 'अर्थ में दत्तचित्त होकर नयेनये भावों को आश्चर्यपूर्वक सुनता था । इस तरह पूर्व जन्मोपार्जित महान पुण्य के समूह से सर्व इच्छाओं से पूर्ण हुआ उस राजा के दिन विविध क्रीड़ा से व्यतीत होते थें ।
वह राजा किसी दिन सभा में बैठा था उसके दाहिने और बायें दोनों ओर नवयुवतियों द्वारा उज्ज्वल चामर ढोले जा रहे थें, दूर देश से राजाओं का समूह आकर चरण कमल में नमस्कार कर रहे थें, और स्वयं अन्यान्य सेवकों के ऊपर मधुर दृष्टि को फेंक रहा था, उस समय पर काँपते शरीर वाला, सिर पर सफेद बाल वाला और इससे मानो वृद्धावस्था का गुप्तचर हो ऐसा कंचुकी शीघ्र राजा के पास आकर बोला कि - आदरपूर्वक आयी हुई स्त्रियों के मुखरूप कमलों को विकसित (प्रसन्न ) करने में चन्द्र तुल्य, सुखरूपी लताओं के मूल स्वरूप क्रीड़ा से शोभती हुई भुजाओं से अति समर्थ और सर्व सम्पत्ति युक्त हे देव! कमल के पत्र समान लम्बे नेत्र वाली लक्ष्मी से आपकी जय हो! जय हो! इस तरह स्तुतिपूर्वक आशीर्वाद देकर कहा कि लाखों शत्रुओं का पराभव करने वाले हे स्वामिन्! हमारी विनती है कि अन्य पुरुषों से रखवाली करते जाग्रत और सर्व दिशाओं में देखते हुए हम अन्तपुरः में होने पर भी जंगली हाथी के समान, रोकने में असमर्थ एक भयंकर पुरुष किसी स्थान से अचानक आया । वह मानो तीक्ष्ण शस्त्र से युक्त साक्षात् विष्णु के समान, पर्वत सदृश महान् शरीर वाला, वीर वलय धारण करने वाला, बड़ी भुजाओं वाला और अक्षुब्ध मन वाला, निर्भय वह पहरेदार की भी अवगणना करके कनकवी रानी के निवास में जैसे पति अपने घर में प्रवेश करता है वैसे गया है। हे राजन् ! तीक्ष्ण धार वाली तलवार के प्रहार भी उसके वज्र स्तम्भ समान शरीर पर लगता नहीं है, और गर्व से उद्भट सुभट भी उसके फूँक की हवा मात्र से गिर गये हैं। मैं मानता हूँ कि उसने करुणा से ही हमारे ऊपर प्रहार नहीं किया है। अन्यथा यम स उसे कौन रोक सकता है? हे स्वामिन्! इससे पूर्व हमने कभी नहीं सुना और न ही देखा ऐसा प्रसंग आ गया है, इसमें कुछ भी समझ में नहीं आता है, अतः अब आपकी जो आज्ञा हो वह हम करने को तैयार हैं ।। १२४ ।। इस प्रकार सुनकर क्रोध के आवेग से उद्भ्रान्त भृकुटी द्वारा भयंकर, ऊँचे चढ़े भाल प्रदेश वाला, बारबार होंठ को फड़फड़ाते और वक्र भृकुटी वाले राजा ने ताजे कमल के पत्र समान लम्बी अपनी आँखों से सिद्ध पुरुषाकार वाले, पराक्रमी, सामन्त, सुभट और सेनापतियों के ऊपर देखा, यम की माता के समान राजा की भयंकर दृष्टि को देखकर अति क्षोभित बनें सभी सामन्त आदि मानों चित्र में चित्रित किये हों इस तरह भय से स्तब्ध हो गये। इस व्यतिकर को सुनकर अभिमान रहित बनें सेनापति तथा सुभट भी उत्तम साधुओं के समान तुरन्त संलीनता में मन लगाने के समान शून्य मन वाले हो गयें। हाथ में तलवार को धारण करते राजा भी सभा को शून्य शान्त देखकर बोला- व्यर्थ में पराक्रम का अभिमान करने वाले 'हे अधर्म सेवकों! तुम्हें धिक्कार है! मेरी नजर के सामने से जल्दी दूर हट जाओ' ऐसा बोलता हुआ कटिबंधन से बद्ध होकर उसी समय राजसभा से बाहर निकल गया। उसके बाद चण्ड, चपल, मंगल, विश्वभर आदि अंग रक्षकों ने मस्तक पर अंजलि जोड़कर भक्तिपूर्वक राजा को विनती की कि - हे राजन् ! आप हमें क्षमा करें। हमें आज्ञा दीजिए और इस उद्यम से आप रुक जाएँ। हमारी प्रथम प्रार्थना भंग करने योग्य नहीं है, यदि आप स्वयं नहीं रुकते तो भी एक क्षण आप
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