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भूमिका ]
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गयी । धन आदि की तलाशी ली गयी। उसके पास जो आभूषण थे वे राजा चण्डसेन के थे । धन वगैरह को बन्दी बना लिया गया। अनन्तर धन को निर्दोष पाकर उन्होंने छोड़ दिया धन सुशर्मनगर आया। वहाँ एक दिन सिद्धार्थ नामक उद्यान में उसने श्रमणश्रेष्ठ यशोधर को देखा । धन ने उनसे पूछा- आपके वैराग्य का क्या कारण है, जो कि कामदेव से समान शरीर के धारण करके भी विषय सुखों को छोड़कर दीक्षित हो गये ? यशोधर ने कहा-संसार को छोड़कर दूसरा कोई वैराग्य का कारण नहीं है तथापि विशेष रूप से मेरा अपना चरित ही वैराग्य का कारण है। यदि इच्छा है तो सुनो
श्रमणश्रेष्ठ यशोधर को आटे के चूर्ण के बनाये हुए र्गे की बलि देने के कारण अनेक जन्मों में जो यातनाएँ सहनी पड़ीं, उन सबका विस्तृत विवरण कह सुनाया। यह सुनकर धन को वैराग्य हो गया । उसने यशोधराचार्य के पादमूल में दीक्षा ले ली और निरतिचार मुनिव्रत का पालन करने लगा ।
इधर वह नन्दक धनश्री के साथ कौशाम्बी आया और अपना नाम समुद्रदत्त रख वहीं रहने लगा। एक बार मुनि धन विहार करते हुए नन्दक के घर में प्रविष्ट हुए। धनधी ने उन्हें पहिचान लिया। उसने सोचा - 'वह समुद्र के बीच भी कैसे नहीं मरा, मैं अधन्य हूँ जो कि यह पुनः दिखाई पड़ा। अब वैसा उपाय करती है जिससे यह जीवित न रहे। इसी बीच भिक्षा का समय निकल गया, यह सोचकर धन वहाँ से चले गये। नगरदेवी के उद्यान में जब वे सायंकाल के समय कायोत्सर्ग से खड़ थे, तब धनश्री कृष्णपक्ष की अष्टमी के उपवास का बहाना लेकर नगरदेवी के मन्दिर में ठहर गयी। इसी बीच गाड़ी में सारवान् लकड़ी भरकर एक गाड़ीवाला आया, उसकी गाड़ी की धुरी टूट गयी सूर्य अस्त हो गया। कोई लकड़ियों को नहीं लेगा, ऐसा सोचकर दोनों बैलों को लेकर गाड़ीवान चला गया । धनश्री ने उन लकड़ियों का प्रयोग कर कायोत्सर्गस्थ
को जला दिया। मुनि शुभ परिणामों से मरकर महाशुक्र स्वर्ग में उत्पन्न हुए। राजा को जब यह घटना विदित हुई और धनश्री के विषय में उसे पूर्ण जानकारी मिली तब स्त्री अवध्य है-ऐसा सोचकर उसे उसने अपने राज्य से निकाल दिया। दिन के अन्त समय में जाती हुई भूख-प्यास से अभिभूत वह गाँव के मन्दिर के समीप सोयी । वहाँ उसे साँप ने डस लिया । बहुत बड़े क्लेश से उसने प्राण छोड़े तथा मरकर बालुकाप्रभा नरक में नारकी हुई ।
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पंचम भव की कथा
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जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में काकन्दी नगरी में सूरतेज नामक राजा था। उसकी लीलावती नामक पत्नी थी। महाशुक्र स्वर्ग का देव आयु पूरी कर लीलावती के गर्भ में आया । पुत्र के रूप में उत्पन्न होने पर इसका नाम जयकुमार रखा गया । पूर्वभव की भावनावश उसका धर्मपालन के प्रति अनुराग हो गया । एक बार चन्द्रोदय नामक उद्यान में उसने श्वेतविकाधिपति यशोवर्मा के पुत्र सनत्कुमार नामक आचार्य को देखा । वन्दना कर उनसे उसने पूछा- आपके वैराग्य का विशेष कारण क्या है ? मुनिराज ने कहा-सौम्य सुनो !
इसी भारतवर्ष में श्वेतविका नामक नगरी है । वहाँ यशोवर्मा नामक राजा था, उसका पुत्र मैं सनत्कुमार हूँ । एक बार वध करने के लिए ले जाते हुए कुछ गोर मेरी शरण में आये। मैंने उन्हें छुड़वा दिया। नागरिक इष्ट हो गये। अतः महाराज ने प्रच्छन्न रूप से उन्हें मरवा दिया। इस घटना से रुष्ट हो मैं नगरी से निकल गया । ताम्रलिप्ती पहुँचने पर यह वृत्तान्त वहाँ के स्वामी ईशानचन्द्र को विदित हुआ उन्होंने मुझे ससम्मान बुलवा कर भवन में ठहरा दिया ।
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एक बार वसन्त के समय मैं अनंगनन्दन नामक उद्यान की ओर गया । सड़क पर जाते समय पूर्व
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