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[ समराइचकहा भव के अभ्यास से अनुरागवश ईशानचन्द्र की पुत्री विलासवती ने मेरे ऊपर खिड़की से अपने द्वारा गूथी हुई मौलसिरी की माला फेंक दी । वह मेरे कण्ठ में पड़ी । उसे मेरे मित्र वसुभूति ने देखा । अनन्तर मैंने उस स्थान को शरीर से तो पार कर लिया, किन्तु मन से नहीं । मेरा अभिप्राय जानकर वसुभूति ने विलासवती की धाय की पुत्री अनंगसुन्दरी से सम्पर्क किया। उसकी सहायता से मन्दिर के उद्यान में हम दोनों का मिलन हुआ । विलासवती चली गयी। मुझे और वसुभूति को उद्यान के एक भाग में अनंगवती नामक राजपत्नी ने देखा। वह मुझे चाहने लगी। एक बार राजमहल से निकलते हुए मुझे अनंगवती की दासी ने बुलाया। मैं महाराज के विश्वास से माता की आज्ञा पालन करने में कोई विघ्न नहीं है-ऐसा कहकर अनंगवती के यहाँ गया। उसने अपना कामभाव व्यक्त किया। मैंने उसे समझाया । वह उस समय मेरे विचारों से सहमत हो गयी। कुछ समय बीतने पर राजा के दूसरे हृदय के समान विनयधर नामक, नगर की रक्षा करने वाला एक अधिकारी आया। उसने कहा-आपके पिता के राज्य में स्वस्तिमती नाम का सन्निवेश है। वहाँ पर वीरसेन नाम का कुलपुत्र है। उसकी गृहिणी जब गर्भवती हुई तब उसे लेकर बड़े समूह के साथ गहिणी के पितगह जयस्थल नामक नगर को चल पड़ा। श्वेतवि का नगर के बाहर जब ठहरा हु सब एक भयभीत कुलपुत्र मेरी शरण में आया। इसी बीच राजपुरुष आ गये । उन्होंने कहा कि दूसरे के धन का अपहरण कर इसने महाराज की आज्ञा का उल्लंघन किया है । अतः यह प्राण-धारण करने के योग्य नहीं है। मैंने कहा-यथार्थ बात जाने बिना मैंने इसे शरण लिया है, अतः मैं इसे नहीं छोड़ सकता हूँ। राजपुरुषों ने राजा से कहा । राजा ने मुझे शीघ्र मार डालने का आदेश दे दिया, अतः युद्ध आरम्भ हो या। इसी बीच बहुत से घुड़सवारों के साथ महाराज का पुत्र यशोदेव वर्मा अश्वक्रीडनक भूमि से आया। उसने कुलपुत्र का पक्ष लिया, अतः वह छूट गया। कुलपुत्र दो माह में जयस्थल पहुंच गया। उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। हे कुमार ! वह मैं ही हूँ। इस प्रकार समस्त प्राणियों पर उपकार करने वाले आपके पिता और माता के विशेष उपकारी हैं । आज ईशानचन्द्र अश्वक्रीडनक भूमि से आकर अनंगवती के घर प्रविष्ट हुए । उनसे अनंगवती ने कहा कि कुमार ने उसके साथ अनुचित चेष्टा की है। तब राजा कुपित हो गया और उसने कहा-अरे विनयधर ! शीघ्र ही उस दुराचारी कुलकलंकी को मार डालो। मैंने कहा-जो महाराज आज्ञा दें। अत. आपको मेरी सलाह है कि आज रात एक जहाज स्वर्णभूमि को जा रहा है। उसी से जाकर मुझे अनुगृहीत करें। वसुभूति और मैं दो माह में स्वर्णभूमि पहुँच गये। वहाँ पर श्वेतविका के निवासी समृद्धिदन सेठ के पुत्र मनोरथदत्त को देखा, जो कि मेरा बाल्यकालीन मित्र था और यहाँ वाणिज्य के लिए आया था। उसने भी हम लोगों को देखा । उसकी सहायता से वसुभूति और मैंने सिंहलद्वीप जाने की तैयारी की। मनोरथदत्त ने मुझे नयनमोहन वस्त्र दिया। उस वस्त्र से ढका हुआ पुरुष किसी को दिखाई नहीं देता था। मैंने उस वस्त्र की परीक्षा की और मित्र से उस वस्त्र की प्राप्ति का वृत्तान्त पूछा । मित्र ने कहा--सुनो,
यहाँ आने पर सिद्धविद्या का प्रयोग करने वाले आनन्दपुर के निवासी सिद्धसेन नामक सिद्ध के पुत्र से मेरी प्रीति हो गयी । मैंने उससे कहा- मित्र ! विद्या के साधन में वास्तविकता क्या होती है ? दिव्य सन्देश सही होता है या नहीं ? उसने कहा--सही होता है। मैंने दिव्य चेष्टाएँ दिखाने के लिए कहा। उसकी सहायता से मैंने विद्या सिद्ध की । इसके फलस्वरूप एक यक्षकन्या प्रकट हुई । उसने प्रसन्न होकर यह नयनमोहन वस्त्र दिया।
ईश्वरदत्त के जहाज से हम लोग सिंहलद्वीप की ओर रवाना हुए। तेरहवें दिन एकाएक जहाज टूट गया। सब लोग अलग-अलग हो गये । मैं एक लकड़ी के टुकड़े के सहारे तैरता हुआ किनारे पर आ लगा। थोड़ी दूर चलकर आहार वगैरह करने के बाद शिलातल पर पत्तॊ की शय्या पर बायीं करवट से
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