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भूमिका क्रम से मरण को प्राप्त हुए और अवेयक में देव हुए। मंगलक भी उस धन की रक्षा करता हुआ, क्लेशपूर्वक जीविकोपार्जन करता हुआ आयु पूरी कर तमा नामक नरक में नारकी हुआ। वहाँ आयु पूरी करने के पश्चात् बकरा हआ। एक बार उस स्थान पर आया तो उसे जातिस्मरण हो गया। लोभवश बारबार खींचने पर भी जब वह दूसरी जगह जाने को तैयार नहीं हुआ तो उसके स्वामी ने उसे मार डाला। अनन्तर उसी धन वाले स्थान पर चूहा हुआ। यह चूहा एक धूताचार्य ने मार दिया। अनन्तर उसकी नाककान विहीन दुर्गिलिका नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । यौवनावस्था में अनुचित कार्य करने के कारण राजा की आज्ञा से सिपाहियों ने शूली पर चढ़ाकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । अनन्तर वह नारकी हुआ । वहाँ पर आयु पूर्ण कर इसी देश के लक्ष्मीनिलय में अशोकदत्त सेठ की पुत्री हुआ । वह सागरदत्त व्यापारी के पुत्र समुद्रदत्त को दी गयी। इसी बीच तुम वेयक से निकलकर इसी के गर्भ में पुत्र के रूप में आये । कालक्रम से तुम्हारा जन्म हुआ। तुम्हारा नाम सागरदत्त रखा गया । तुम्हारी माँ ने इसी धन के कारण तुम्हें विष दे दिया। किसी सिद्ध पुरुष ने मन्त्र प्रयोग कर तुम्हें जिलाया। पश्चात् दीक्षा धारण कर, मरण के बाद तीस सागर की आयु वाले ग्रेवेयक देव हुए । तुम्हारी माँ पुत्रवध के परिणाम के कारण धूमप्रभा नरक में नारकी हुई । वहाँ से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर पूर्वभव के संस्कारवश लोभ के दोष से यहां पर नारियल के वृक्ष के रू: में उत्पन्न हुई। तुम भी वहाँ से च्युत होकर सागरदत्त सेठ के घर श्रीमती के गर्भ में आये । तुम दोनों की इस समय यह अवस्था है।
यह सुनकर मैं भयभीत हो गया और भवभ्रमण से मन विरक्त हो गया और राजा की अनुमति से उस धन को दुःखी जीवों को देकर विजयधर्म गणधर के पास मैंने दीक्षा ले ली।
मूल कथा--- शिखिकुमार ने कहा-'भगवन् ठीक है, संसार ऐसा ही है, आप धन्य हैं जोकि इस प्रकार दीक्षित हुए हैं।' अनन्तर शिखिकुमार ने आचार्यश्री से धर्म के भेद पूछे । आचार्य ने शिखिकुमार की जिज्ञासाओं को शान्त करते हुए धर्मोपदेश दिया। शिखिकुमार का मन संसार से विरक्त हो गया। उसने आचार्य से दीक्षा देने की प्रार्थना की। इसी समय पिता ब्रह्मदत्त वहाँ आ गये । शिखिकुमार ने पिता से दीक्षा लेने की अनुमति माँगी । ब्रह्मदत्त ने उसे दीक्षा लेने से रोकना चाहा । ब्रह्मदत्त के सेवक नास्तिकवादी पिंगलक ने चार्वाक मत का प्रतिपादन किया। शिखिकुमार की प्रार्थना पर आचार्यश्री ने पिंगलक के प्रश्नों का उत्तर दिया। भूतचेतन्यवाद के विपरीत युक्तियाँ सूनकर ब्रह्मदत्त के साथ पिंगलक ने श्रावक धर्म धारण कर लिया। विजयसिंह आचार्य ने शिखिकुमार को विधिपूर्वक प्रवृजित किया। इस प्रकार निरतिचार मुनिधर्म का पालन करते हुए अनेक लाख वर्ष बीत गये । इधर जालिनी को दुःख हुआ कि उसने बुरा किया जोकि वह बिना मारे ही निकल गया। उसने अनेक प्रकार के मायापूर्ण वचनों का प्रयोग किया, जिससे शिखिकुमार को उसके ऊपर विश्वास हो गया। अन्त में उसने कुमार को तालपुट विष से युक्त लड्डू दे दिया। तब वह पंचनमस्कार मन्त्र से युक्त हो शुभपरिणामों से मरकर देवों के श्रेष्ठ ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। माता जालिनी शेष समय बिताने के बाद मरकर शर्कराप्रभा नामक महाघोर नरक में नारकी हुई।
चतुर्थभव की कथा
जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में सुशर्मनगर नाम का श्रष्ठ नगर था। वहाँ सुधन्वा नाम का राजा था। उस राजा के द्वारा सम्मानित वैश्रवण नाम का सार्थवाह था। उसकी श्रीदेवी नामक पत्नी थी। एक बार नगर के पास धनदेव नामक यक्ष की पूजा कर इन दोनों ने याचना की—'भगवन् ! यदि आपके प्रभाव से हम दोनों के पुत्रोत्पत्ति होगी तो भगवान् की समस्त नगर-निवासियों के साथ बहुत बड़ी पूजा
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