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करने लगा। राजा ने उसे युवराज बना दिया और कुछ समय पश्चात् किसी घटना से विरक्त हो उसने आनन्द का राज्याभिषेक करने की तैयारी की । पूर्वजन्मों की घृणा के कारण आनन्द ने दुर्गति नामक सामन्त से मिलकर राजा को मारने का षड्यन्त्र किया, जिसमें वह सफल नहीं हुआ । राजा विरक्त हो गया था। अतः उसने आनन्द को राजा बनाने की घोषणा की। आनन्द ने पिता को बन्दी बनाकर भयंकर कालकोठरी में डाल दिया। आनन्द ने अपना दुर्व्यवहार राजा पर जारी रखा । अन्त में राजा ने मरणपर्यन्त भोजन का परित्याग कर दिया। यह समाचार सुन आनन्द ने उस पर कुपित हो उसे मार डाला। राजा सिंह मरकर लीलाराम विमान में पांच सागरोपम आयु वाला देव हुआ और पुत्र 'आनन्द' मृत्यु के बाद रत्नप्रभा नरक । में गया।
तृतीय भव की कथा
जम्बूद्वीप के अपरविदेह क्षेत्र में कौशाम्ब नाम का नगर था। वहां का राजा अजितसेन था। उसका इन्द्रशर्मा नामक ब्राह्मण मन्त्री था। उसकी पत्नी शुभंकरा थी। आनन्द नारकी नरक में एक सागर की आयु व्यतीत कर और कुछ कम चार सागर प्रमाण संसार में भ्रमण कर इन्द्र शर्मा ब्राह्मण की उस शुभंकरा नामक पत्नी के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । उचित समय पर उसका जन्म हुआ। उसका नाम जालिनी रखा गया । यौवनावस्था आने पर वह उसी राजा के बुद्धिसागर नामक मन्त्री के पुत्र ब्रह्मदत्त को दी गयी । भोग भोगते हुए दोनों का कुछ समय बीत गया। इधर वह सिंहदेव उस स्वर्ग से च्युत होकर कर्म की अचिन्त्य महिमा से इस जालिनी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। जालिनी ने उसी रात्रि स्वप्न में देखा कि स्वर्ण से भरा हुआ कलश उसके गर्भ में प्रविष्ट हुआ और उसके असन्तुष्ट होने के कारण निकलकर किसी प्रकार टूट गया है। उसे देखकर घबड़ायी हुई वह जाग गयी । गर्भ बढ़ने लगा । जालिनी ने गर्भ के नष्ट करने के उपाय किये। कर्म के फल से गर्भ नष्ट नहीं हुआ । ब्रह्मदत्त को वृत्तान्त ज्ञात हुआ। उसने जन्म के समय सेवक नियुक्त किये और उनसे कहा कि जिस प्रकार गर्भ विपत्ति में न पड़े वैसा उपाय करना और स्वामिनी के सन्तोष के लिए किसी प्रकार उसके चित्त को धोखा देकर मुझे निवेदन करना । प्रसव के समय जालिनी ने प्रसव किया। बालक का नाम 'शिखि' रखा गया। राजा ने प्रच्छन्न रूप से उसका पालन-पोषण कराया। बार में उसे गोद ले लिया। शिखि ने माता के स्वप्नदर्शन और गर्भ नष्ट करने सम्बन्धी वृत्तान्त को जाना। उसे वैराग्य हो गया। इसी बीच पुत्र का वृत्तान्त जानकर उसकी माता कषाय से युक्त हुई । उसने ब्रह्मदत्त पर क्रोध किया तथा उससे कहा--'इसका प्रिय करो अथवा मेरा प्रिय करो। इसको त्यागे बिना में प्राण धारण के लिए जल भी ग्रहण नहीं करूंगी।' इस वृत्तान्त को शिखिकुमार ने सुन लिया अत्यन्त दाखी मन वह घर से निकल गया। वह अशोक वन नामक उद्यान में गया। वहाँ पर उसने विजयसिंह नामक आचार्य को देखा। उसने आचार्यश्री से पूछा- अपने बन्धु-बान्धवों से निरपेक्ष होकर कैसे इस प्रकार की निरासक्ति को प्राप्त हुए हो?' गुरु ने कहा, सुनो-'इस हड्डी, मांस और खून से मिले हुए सौन्दर्य में क्या है ? परिश्रम मात्र जिसका फल है, ऐसे वैभव के विस्तार में अविच्छिन सम्बन्ध क्या है ? अथवा स्वप्न के समान चंचल स्वजनों में आसक्ति करना मोह का ही फल है। एक बात और भी है, सुनो, हमारे ऊपर जो घटित हुई
विजयसिंह के वैराग्य की कथा--इसी देश में लक्ष्मीनिलय नाम का नगर है। वहाँ सागरदत्त नाम का वणिक् (सार्थवाह) और उसकी 'श्रीमती' नामक पत्नी थी। उन दोनों का मैं पुत्र हूँ। कुमारावस्था में मैं उसी नगर के पास लक्ष्मीपर्वत पर गया । वहाँ एक स्थान पर चिकने पत्तों के समूह वाला एक नारियल का
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