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[ समराई मकहा के लिए फुसला सके । लेकिन हुआ यह कि कुछ भ्रमवश पहिले वह छज्जे पर जा पहुंचा। शीघ्र ही वह छज्जा गिर गया और उसके साथ द्रोणक भी गिरकर मर गया। इस घटना के प्रकट होने पर मैंने नियम लिये । मृत्यु के बाद मैं एक प्रैवेयक विमान में देव हुआ और दूसरा धूमप्रभा नरक में नारकी हुआ । अनन्तर मैं देवायु भोगकर च्युत हो जम्बूद्वीप के इसी देश की चम्पा नगरी में मणिभद्र सेठ की स्त्री धारिणी के गर्भ में आया और उचित समय पर उत्पन्न हुआ। मेरा नाम पूर्णभद्र रखा गया। शब्दोच्चारण करते हुए प्रथम मैंने अमर शब्द का उच्चारण किया अतः मेरा दूसरा नाम अमरगुप्त भी रखा गया । श्रावक के घर उत्पन्न होने के कारण मैंने जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत धर्म पाया । इसी बीच दूसरा भी उस नरक से निकलकर स्वयम्भूरमण समुद्र में महामत्स्य होकर अत्यन्त पाप दृष्टिवाला होने के कारण मरकर उसी धूमप्रभा में बारह सागर की आयुवाला नारकी हुआ । वहाँ से निकल कर अनेक तिर्यंच योनियों में भटकता हुआ उसी नगर में नन्द्यावर्त सेठ की श्रीनन्दा पत्नी के गर्भ में पुत्री के रूप में आया। उचित समय पर वह उत्पन्न हुई । उसका नाम नन्दयन्ती रखा गया । वह यौवनावस्था को प्राप्त हुई और मुझे ब्याह दी गयी । पूर्वकृत कर्मदोष के कारण उसका मेरे प्रति छल-कपट का भाव दूर नहीं हुआ, जिससे वह मेरे प्रति माया का आचरण करने लगी।
एक बार उसने अपने कर्णफल खो जाने का बहाना किया। सान्त्वना देने के लिए मैंने उसको दूसरा जोड़ा लाकर दे दिया। एक बार जब मैं स्नान करने जा रहा था, मैंने उसे अपनी अंगूठी दे दी । उसने अंगूठी सन्दूक में रख दी। जब मैंने सन्दूक खोला तो मुझे वह कर्णफूल का जोड़ा नजर आया, जिसे उसने खोने का बहाना किया था। उसी समय मेरी पत्नी आयी और अंगूठी को मेरे हाथ में देखा और सारी घटना से अवगत हो गयी। उसने मुझे मारने के लिए मारक द्रव्यों के संयोग से मिश्रण तैयार किया। जब वह उसे एक स्थान पर रख रही थी कि एक साँप ने उसे काट खाया। वह मर गयी। उस घटना से मुझे वैराग्य हो गया, मेरा धर्मानुराग बढ़ा । संसार की असारता सोचकर मैंने दीक्षा ले ली। वह बेचारी मरकर तमःप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में उत्पन्न हुई । यह मेरा चरित है।
मुख्य कमा-सिंहकुमार ने धर्मघोष मुनि से संसार की प्रकृति, सुख-दुख तथा यथार्थ धर्म का स्वरूप पूछा । धर्मघोष ने गतियों का निरूपण किया, सुख-दुःख के लिए मधु बिन्दु का दृष्टान्त दिया तथा दस धर्मों का निरूपण किया । जो व्यक्ति दस धर्मों का पूर्ण पालन नहीं कर सकता उसे गृहस्थ के व्रत का पालन करना चाहिए।
अनन्तर राजा पुरुषदत्त मृत्यु को प्राप्त हुआ और सिंह राजा हुआ। इसी बीच वह अग्निशर्मा तापस उस विद्युत्कुमार के शरीर से च्युत होकर संसार में भ्रमण करता हुआ अनन्तर भव में कुछ अज्ञानतप तपकर उस देह को छोड़ कर पूर्वकों के संस्कारों के फलरूप दोष से कुसुमावली के गर्भ में आया। कुसुमावली ने स्वप्न में देखा कि उसके उदर में सर्प प्रवेश कर रहा है । उसने निकलकर राजा को डस लिया । राजा सिंहासन से गिर पड़ा। यह देखकर कुसुमावली जाग उठी। अमंगल मानकर उसने पति से नहीं कहा । एक बार गर्भकाल में उसे राजा की आँते खाने की इच्छा हुई। इस भयानक इच्छा ने उसे अनुत्पन्न शिशु के प्रति भी घृणा पैदा कर दी। उसने गर्भपात का प्रयत्न किया, किन्तु व्यर्थ हुआ। वह प्रतिदिन दुर्बल होती गयी। राजा को किसी प्रकार जब रानी के दोहले का पता चला तब उसने कृत्रिम आँतें लगवाकर, उनको बाहर निकालकर रानी को दे दी. रानी स्वस्थ हो गयी । मन्त्री की सलाह से रानी ने जन्मप्राप्त शिशु को अन्यत्र भेजने का प्रयास किया, किन्तु वह बात राजा के पास प्रकट हो गयी। राजा ने शिशु को दूसरी दासियों को सौंप दिया। शिशु का नाम आनन्द रखा गया। बालक पूर्वजन्म के संस्कारवश अपने पिता सिंह से घृणा
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