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, भूमिका ]
ले गये । शबरों ने नगर पर चढ़ाई के बाद एक गांव के समीप कुएं के किनारे डेरा डाला था। मेरी पत्नी बलात्कार के भय से कुएँ में गिर गयी । अनन्तर वह तैरकर कुएं' की एक खोह में बैठ गयी थी। उसी समय अनघक और मैं कुए के किनारे गये। अनघक के पास धन की थैली थी; जब कि मेरे पास खाद्य सामग्री थी। उसके मन में धोखा देने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने मुझे कुएं में पानी है या नहीं, यह जानने के लिए उसमें झाँकने को कहा। जैसे ही मैं कुएं पर झुका, उसने मुझे धकेल दिया और धन लेकर भाग गया । मैं घबराहट से कुए के एक किनारे · आ लगा । स्त्रीस्वभाव के कारण दुःख एवं भय से जिसके अंग विह्वल हो रहे थे, ऐसी चन्द्रकान्ता ने मुझे थाम लिया। आवाज से दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया । हम दोनों उस खाद्य पर कुछ दिन जीवित रहे, जो कि मेरे पास थी। कुछ समय बाद वहाँ एक सार्थ आया जो कि रत्नपुर को जा रहा था। उसने हमें बाहर निकालकर बचाया। हम दोनों सार्थ के साथ चल पड़े। हमने सिंह द्वारा मारे गये एक आदमी का कंकाल देखा। धन की प्राप्ति से हम दोनों ने यह पहिचाना कि यह अनघक ही था। तब उसके फल को उस प्रकार देखकर मुझे विवेक उत्पन्न हुआ। मैं उसी प्रकार भावों के प्रकर्ष को प्राप्त होता हुआ अपने नगर आया और विजयवर्द्धन नामक आचार्य के पास विधिपूर्वक दीक्षा ले ली। आयु पूरी कर विधिपूर्वक शरीर त्यागकर सोलह सागर की आयु वाले महाशूक स्वर्ग में वैमानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ। दूसरा अनधक भी सिंह के द्वारा मारा जाकर सात सागर की स्थिति वाला बालुकाप्रभा नरक में उत्पन्न हुआ।
अनन्तर मैं आयु पूर्ण कर स्वर्गलोक से च्युत होकर इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष के 'रथवीरपुर' नगर में नन्दिवर्द्धन गहस्थ (गाथापति) की सुरसुन्दरी नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसर भी नरक से निकलकर विन्ध्यगिरि पर्वत पर अनेक प्राणियों को मारने वाले सिंह के रूप में उत्पन्न हआ। सिंह के रूप में उत्पन्न होकर पुन: मरकर सात सागर की आयु वाले उसी बालुकाप्रभा नरक में उत्पन्न होकर वहाँ से निकलकर नाना तिर्यच-योनियों में भ्रमण कर, उसी नगर के सोम व्यापारी की नन्दिमतो स्त्री के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। मेरा नाम अनंगदेव और दूसरे का धनदेव रखा गया। बाल्यावस्था से उसके प्रति मेरी प्रोति सद्भाव से और मेरे प्रति उसकी छलकपट से हुई। रत्नद्वीप में रत्नों का अर्जन कर एक बार दोनों अपने देश आने को प्रवृत्त हुए । मुझे अपने लाभ से वंचित रखने के लिए उसने लड्डू बनवाये और उसमें से एक में मुझे देने के लिए तेज विष डाल दिया, परन्तु भूल से वह स्वयं ही उस लड्डू को खा गया और मर गया । मैंने संसार से विरक्त हो देवसेनाचार्य के समीप दीक्षा ले ली। आयु पूरी कर विधिपूर्वक शरीर छोड़कर प्राणत स्वर्ग में उन्नीस सागर की आयुवाला देव हुआ। दूसरा भी विष से मरण होने के बाद पंकप्रभा पृथ्वी में नव सागर की आयुवाला नारकी हुआ।
___अनन्तर मैं आयुकर्म के अनुसार आयु पूर्ण कर च्युत हो इसी जम्बद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में हरिनन्द गाथापति की लक्ष्मीमती नामक भार्या के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसरा भी नरक से निकलकर सर्पयोनि प्राप्त कर अनेक प्राणियों के मारने में रत हो दावानल से जलकर मरने के बाद, उसी पंकप्रभा पृथ्वी में कुछ कम दश सागर की आयुवाला नारकी हुआ। वहाँ से निकलकर तियंचगति में भ्रमण कर उसी हस्तिनापुर नगर में इन्द्र नामक वृद्ध सेठ की नन्दिमती नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए। मेरा नाम वीरदेव और दूसरे का नाम द्रोणक रखा गया। मैं उसका सद्भाव से और वह मेरा छल से मित्र हो गया। मेरी पूजी से व्यापार कर उसने बड़ा लाभ प्राप्त किया। वह मुझे एक साझीदार के नाते लाभ से वंचित रखने के लिए मारना चाहता था। उसने एक अस्थिर छज्जे पर बड़ा विनोद-स्थान बनवाया और मुझे आमन्त्रित किया ताकि छज्जे पर पहले मुझे जाने
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