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समय देशना - हिन्दी एक भेद नहीं है । तीर्थंकर महावीर स्वामी की आयु मात्र ७२ साल की रही, पर आयुकर्म की प्रधानता को निहारें तो आचार्य कुन्द-कुन्द ८९ वर्ष तक मुनि बनकर रहे, ८ वर्ष की आयु में दीक्षा ले ली, ९५ वर्ष १० माह १५ दिन की आयु पाई थी। इतने दीर्घ समय तक आचार्य-भगवान् कुन्द-कुन्द मुनिपद पर रहे। इतने वर्ष की तो तीर्थंकर महावीर की आयु नहीं थी। इसलिए इस अपेक्षा से तीर्थंकर महावीर से कथंचित् आचार्यभगवान् कुन्दकुन्द देव पुण्यात्मा थे।
"अर्पितानर्पित सिद्धेः।" इस ग्रन्थ का अध्ययन करते समय 'आचार्य उमास्वामी' के सूत्र को लेकर चलना 'अर्पितानर्पित सिद्धेः । एक की प्रधानता है, दूसरे की गौणता है, अभाव किसी का नहीं है। साधन, साधन है, साधन साध्य नहीं है। साधन के बिना साध्य की प्राप्ति नहीं होती है। जो साधन को ही साध्य मान लेता है, वो बहिरात्मा होता है। जो साधन के अभाव में साध्य को प्राप्त कर लेता है, वो परम बहिरात्मा होता है। ज्ञानियों ! ध्यान रखना ‘परम' क्यों लगा दिया ? जो आपने साधन के अभाव में साध्य को प्राप्त कर लिया। कारण के बिना कार्य व साधन के बिना साध्य की प्राप्ति असंभव है। लेकिन जो साधन को साध्य माने उसे तो बहिरात्मा कहा; पर साधन के अभाव में जो साध्य को सिद्ध कर लेता है, उसे परम बहिरात्मा कहा। वह तो अज्ञानी था, पर तुम साध्य को जानकर भी और साधनविहीन होकर प्राप्त करने की बात करते हो, तो परम अज्ञानी हो। इसलिए हमने उसमें परम' शब्द जोड़ा।
साधन, साधन है। आज दो जीव भ्रमित है । एक वे हैं जो साध्य की प्राप्ति में ही लगे हैं साधन के अभाव में और दूसरे भ्रमित वो हैं, जो साध्य की ओर लक्ष्य ही नहीं ले जा पाते , साधन के पीछे भाग रहे है। साधन साधना नहीं है। जो साधना को साध्य मान बैठेगा, वो न साध्य को पायेगा. न साधन को। किसी को नहीं समझ पायेगा । समझ में आ रहा है न ?
- हे ज्ञानी ! साधना साधन ही है। साधना साध्य किंचित भी नहीं है। साधना के बिना साध्य किंचित भी सिद्ध होता नही है , इसलिए साधना परम अनिवार्य है। पर जो जीव साधना में लगकर साधना ही कर रहे हैं
और साध्य को नहीं समझ पा रहे हैं, वह साधना करके उभय लोक से खोखले हो रहे हैं। उभय लोक से खोखले क्यों कह दिया ? इसलिए कह दिया कि वर्तमान का सुख तूने बुद्धिपूर्वक छोड़ दिया, भविष्य में साध्य पर लक्ष्य है नहीं , सो भविष्य में मिलनेवाला है नहीं, अत: इस लोक से भी गया, परलोक से भी गया। बिना साध्य के साधना नहीं होती है। पर, ज्ञानी ! साध्य वही होता है, साधना से जिसकी प्राप्ति होती है। निर्ग्रन्थ दीक्षा लेना, साधना करना, पर साध्य स्वात्मसिद्धि है, न कि स्वर्ग । स्वर्ग चले जाना, ये भिन्न विषय है, परन्तु साध्य की सिद्धि पर लक्ष्य न रखकर स्वर्ग और व्यर्थ के प्रपंच में लग जाना, साधना नहीं है। साध्य के अभाव में साधना संभव नहीं है।
अपन 'समयसार' पढ़ रहे हैं। बुरा मत मानना, यथार्थ बताओ , साध्य पर लक्ष्य २४ घण्टे में कितनी बार जाता है, साधना भी कितनी होती है, और साधना के माहौल में विराधना कितनी चल रही है ? हे ज्ञानी! उस शिकारी से पूछो। तू कितना भोला है, जो कि झाड़ी में छिपकर बैठा है। लगता योगी-जैसा है, पर उसका निशान आखेट है, चिड़िया को मारने बैठा शिकारी है । हे योगी ! तू बैठा तो योगी की मुद्रा में था, पर दृष्टि भोग पर लगी थी, निजात्म चिड़िया को मार रहा था शरीर के वेश की आड़ में। क्या कहूँ, आप सहन नहीं कर पायेंगे।
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