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समय देशना - हिन्दी । सम्मान से बड़ा आनन्द है तो न मान, न सम्मान । अपमान या मान किसका होता है ? जिसका चित्त विक्षिप्त होता है। जिसका चित्तविक्षेप ही नहीं होता, उसका न मान है, न सम्मान है।
___ स्वाभिमान शब्द को भी कोष से हटाना है । हे ज्ञानी ! वह है कौन-सी वस्तु ? जब पर्याय ही तेरी नहीं मानता हूँ, तो जो भी सम्मान किया जाता है, वह तेरी पर्याय को लक्ष्य लेकर किया जायेगा । ये भी परभाव ही है। निजभाव में होगा तो वह अभिव्यक्ति नहीं करेगा, अनुभूति करेगा । सम्यक्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप जो श्रद्धा है, वह अभिव्यक्ति का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। यह समयसार अभिव्यक्ति वाली श्रद्धा पर जोर नहीं दे रहा, ये अनुभूति वाली श्रद्धा पर जोर दे रहा है। || भगवान महावीर स्वामी की जय ॥
aga इस ग्रन्थ को पाकर/पढ़कर एक जीव ने अपनी मुख-पट्टी फेंक दी और कहने लगा कि यह तो अशरीरी बनानेवाला, भगवान्-आत्मा को प्राप्त करानेवाला ग्रन्थ है। पर इस भ्रम को निकाल देना, कि 'समयसार' ग्रन्थ अमुक व्यक्ति ने ही प्रचारित किया है। ऐसा नहीं है। मैंने कर्नाटक में जाकर देखा । वहाँ के लोगों में आध्यात्मिक रुचि है, और सम्प्रतिकाल में वर्णी जी ने भी इस ग्रन्थ की अच्छी व्याख्या की । बल्कि यूँ कहना चाहिए, कि जिन्होंने पट्टी को फेंका, वे स्वयं पत्रों के माध्यम से वर्णी जी से पढ़ा करते थे। यह अलौकिक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ को समझने के लिए पूर्ण एकाग्र होना पड़ेगा, क्योंकि इस ग्रन्थ की टीका में आचार्य-भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी कहनेवाले हैं, कि जब-तक अन्दर व बाहर का कोलाहल बन्द नहीं करोगे. तब-तक वह परम तत्त्व समझ में नहीं आयेगा। अन्दर-बाहर का कोलाहल बन्द होने पर ही समयसार स्वरूप की प्राप्ति होगी। भगवान् वर्द्धमान स्वामी के शासन में द्वादशांग वाणी को निबद्ध किया गया। प्रथम श्रुत-स्कन्ध सिद्धान्त-शास्त्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अध्यात्मशास्त्र । प्रथम श्रुतस्कन्ध पर अनेक आचार्यों ने अपनी कलम चलाई, परन्तु द्वितीय श्रुतस्कन्ध को निबद्ध करने हेतु आचार्य-भगवान् कुन्द-कुन्द स्वामी ने अपनी कलम चलाई। ज्ञानियो ! एक हजार वर्ष तक आचार्य-भगवान् कुन्द-कुन्द के ग्रन्थ सुरक्षित रहे।
एक हजार वर्ष व्यतीत होने के उपरान्त आचार्य भगवान अमतचन्द्र स्वामी ने उन ग्रन्थों को निहारा और उन ग्रन्थों पर टीका लिखना प्रारंभ की। ध्रुव सत्य है कि सिद्धान्त पर विवाद बहुत कम हैं, अध्यात्म में विवाद है ही नहीं। पर अध्यात्म को पढ़कर जीव विवाद में आ जाता है। कारण क्या है ? क्योंकि आगम में विवाद /विसंवाद नहीं होता है । यथार्थता ये है कि पात्र की भूमिका को न देखकर और गुणस्थान क्रम से कथन न करने के कारण । ज्ञानी ! चौदहवें गुणस्थान का कथन चौथे में लगाओगे, तो विवाद तो होना ही है । क्योंकि आपने देखा है, विद्युत् के दो तार एकसाथ चलते हैं, ऋणात्मक और धनात्मक । ऋण में धन का, धन में ऋण का प्रयोग करोगे तो लाइट जलेगी, कि बल्व फ्यूज होंगे?
ऐसे ही दो विषय चल रहे हैं, निश्चय और व्यवहार । एक दूसरे के सहकारी कारण हैं। साध्य-साधक भाव हैं। साध्य-साधक भाव को न समझकर जो साधक था उसे साध्य बना लेना और जो साध्य था उसे साधक बना देना, तो क्या होगा? यह विद्युत का दोष नहीं है, यह दोष गलत लगाने वाले का है। इसलिए ध्यान देना, इस ग्रन्थ में जिज्ञासा दिखे तो प्रश्न कर लेना, ये परन्तु उसको विपरीत समझ कर नहीं जाना।
आचार्य कुन्दकुन्द देव एक महान श्रुताचार्य हुए, तो लगता है कि कथंचित् भगवान् महावीर स्वामी से विशेष पुण्यात्मा थे। मैंने कथंचित् लगाया है, इसीलिए बात कुछ और है। क्यों ? पुण्य के अनेक भेद हैं,
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