Book Title: Samaysar Natak Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 9
________________ (<) ज्यौं पंथी ग्रीषम समै, बैठे छाया मांहि । अधर्म की भूमि में, जड़ चेतन ठहरांहि ॥ २३ ॥ संतत जाके उदरमें, सकल पदारथ वास । जो भाजन सब जगतको, सोइ द्रव्य आकाश ॥ २४ ॥ जो नवकरि जीरन करै, सकल वस्तुथिति ठांनि । परावर्त वर्तन धेरै, कालद्रव्य सो जांनि ॥ २५ ॥ समता रमता उरधता, ज्ञायकता सुखभास । वेदकता चैतन्यता, ये सब जीवविलास ॥ २६ ॥ तनता मनता वचनता, जड़ता जडसंमेल । लघुता गरुता गमनता, ये अजीवके खेल ॥ २७ ॥ जो विशुद्धभावनि बंधै, अरु ऊरधमुख होइ । जो सुखदायक जगतमें, पुन्यपदारथ सोइ ॥ २८ ॥ संक्लेश भावनि बंधै सहज अधोमुख होइ ॥ दुखदायक संसारमें, पापपदारथ सोइ ॥ २९ ॥ जोई कर्म उदोत धरि, होइ क्रियारस रतः । करपै नूतन कर्मकौ, सोई आश्रव तत्व ॥ ३० ॥ जो उपयोग स्वरूप धरि, वरतें जोग विरत्त । रोकै आवत करमकों, सो है संवर तत्व ॥ ३१ ॥ . पूरव सत्ताकर्म करि, थिति पूरण जो आउ । खिरवेकौँ उद्दित भयो, सो निर्जरा लखाउ ३२ ॥ 7Page Navigation
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