Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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( अनादिमध्यान्तः ) अनादिमध्यान्त - आदि, मध्य तथा अन्त से रहित । ( सार्व:) सार्वसर्वहितकर्ता और (शास्ता ) शास्ता - हितोपदेशक (उपलास्यते ) कहा जाता है, ये सब आप्त के नाम हैं ।
टीकार्थ- 'परमेइन्द्रादीनांवन्द्येपदे आर्हन्त्येपदे तिष्ठति इति परमेष्ठी' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो इन्द्रादिक के द्वारा वन्दनीय परमपद - अर्हन्तपद में स्थित रहते हैं वे परमेष्ठी कहलाते हैं परमातिशयप्राप्तं ज्योतिर्ज्ञानं यस्यासौ परमज्योति' इन निरुक्ति के अनुसार निरावरण केवलज्ञान से सहित होने के कारण परमज्योति कहलाते हैं । 'विगतोरागो यस्य सः विरागः इस व्युत्पत्ति के अनुसार रागरूप भावकर्म के नष्ट हो जाने से विराग कहलाते हैं । 'विगतो विनष्टो मलः पापं यस्य यस्माद्वा स विमल:' इस निरुक्ति के अनुसार मूलप्रकृति तथा उत्तरप्रकृतिरूप द्रव्यकर्म के नष्ट हो जाने से विमल कहलाते हैं । 'कृतं कृत्यं येन स कृती' इस प्रकार जो समस्त हेय उपादेय तत्त्वों के विषय में विवेक सम्पन्न होने के कारण कृती कहलाते हैं । 'सर्व जानातीति सर्वज्ञ : ' जो समस्त पदार्थों को साक्षात् जानने वाले होने से सर्व आदि मध्यान्तःयस्य सोध्नादिमध्यान्त' इस प्रकार पूर्वोक्त स्वरूप वाले आप्त के प्रवाह की अपेक्षा अति-आटा और अन्न से रहित होने के कारण वे अनादिमध्यान्त कले जाते हैं।