Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १५३ और अज्ञानमूलक असत्य से बचने के लिए अनुवीचिभाषण-आचार्य परम्परा से प्राप्त आगमानुकूल वचन बोलने की भावना के लिए कहा है । आगम के अध्ययन से अज्ञान से होने पाला बसत्य दूर हो जाता है .५६।
अधुना चौर्यविरत्यणुव्रतस्य स्वरूपं प्ररूपयन्नाहनिहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्थमविसृष्टं । न हरति यन्न च दत्ते तवकृशचौर्यादुपारमणम् ॥१६॥12।।
अकृशचौर्यात स्थूलचौर्यात् । उपारमणं तत् । यत् न हरति न गृह्णाति । कि तत ? परस्वं परद्रव्यं । कथंभूतं ? निहितं वा धृतं । तथा पतितं वा । तथा सुविस्मृतं वा अतिशयेन विस्मृतं । वा शब्दः सर्वत्र परस्परसमुच्चये । इत्थंभूतं परस्वं अविसृष्टं अदत्त यत्स्वयं न हरति न दत्त ऽन्यस्मै तदकृशचौर्यादुपारमणं प्रतिपत्तव्यम् ।।११।।
अब अचौर्याणुव्रत का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं
{निहितं वा) रखे हुए (पतितं वा) पड़े हुए अथवा (सुविस्मृतं वा) बिल्कुल भूले हुए (अविसृष्टं) बिना दिये हुए (परस्वं) दूसरे के धन को ( न हरति ) न स्वयं लेता है और न किसी दूसरे को देता है वह (अकृशचौर्यात्) स्थूलस्तेय का (उपारमणं) परित्याग अर्थात् अचौर्याणुगत है ।
टोकार्थ-अकृश चौर्य का अर्थ स्थूल चोरी है। दूसरे का द्रव्य रखा हुआ हो पड़ा हो, भूला हुआ हो, वा शब्द सर्वत्र परस्पर समुच्चय के लिए है ऐसे धन को बिना दिये न स्वयं लेता है और न उठाकर अन्य को देता है । इस स्थल चोरी से उपारमणंनिवृत्त होना यह अचौर्याणुव्रत है ।
विशेषार्थ-उमास्वामी प्राचार्य ने चोरी का लक्षण 'अदत्तादानं स्तेयम' इस प्रकार बतलाया है कि अदत्त-बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना चोरी है। किन्तु समन्तभद्राचार्य ने निहित, पतित, और सुविस्मृतरूप बताये हैं। अर्थात पराया धन कहीं रखा हुआ हो, या गिरा हुआ हो, या भूला हुआ हो, अचौर्याणुव्रत का धारक मनुष्य ऐसे धनको न स्वयं उठाता है और न उठाकर दूसरे को देता है। यदि ऐसी प्रतीति हो कि 'इस पड़ी हुई वस्तु को यदि मैं नहीं उठाता हूँ तो मेरे पश्चात आने वाले तो उठा ही लेंगे और यह वस्तु मालिक को नहीं मिल सकेगी' इस प्रकार के