Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरपड़ श्रावकाचार ऊंघते-ऊधते (तन्द्रा में) सामायिक करते हैं । इसलिए आचार्य ने 'अनलसेन' विशेषण दिया है । अर्थात् सामायिक में आलस नहीं होना चाहिए। आगम में जो सामायिक की विधि बतलाई है, उस विधि के अनुसार ही सामायिक करनी चाहिए। 'अवधानयुक्तेन' जो विशेषण दिया है अर्थात् चित्त की एकाग्रता से युक्त होकर सामायिक करनी चाहिए । सामायिक हिंसादिविरतिरूप पांचों व्रतों की पूर्णता का कारण है । तथा उस काल में महानत जैसा व्यवहार होने लगता है, इसलिए सामायिक उपवास या एकाशन के दिनों में ही नहीं करनी चाहिए, अपितु प्रतिदिवस सामायिक करनी चाहिए । परम प्रकर्ष को प्राप्त चारित्र ही मोक्ष का साक्षात् कारण होता है। सामायिक उसी का अंश है । सामायिक में आत्मध्यान का अभ्यास किया जाता है. यह अभ्यास ही स्थिर होते-होते शुक्लध्यान का रूप ले लेता है और अन्तिम शुक्लध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिए श्रावकों को प्रात: और सायंकाल दो बार सामायिक अवश्य करनी चाहिए । सामायिक प्रतिमा में तीनों काल सामायिक करने का विधान है। यदि शक्ति हो तो मध्याह्न में या अन्य समय भी कर सकते हैं । नियमित समय से अन्य समय में भी करने से कोई दोष नहीं है, बल्कि गुण ही है ।।११।।१०१।।
एतदेव समर्थयमानः प्राह---- सामायिके सारम्भाः परिग्रहा नव सन्ति सर्वेऽपि ।
चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावं ॥१२॥
सामायिके सामायिकावस्थायां । नैव सन्ति न विद्यते । के ? परिग्रहाः सङ्गाः । कथंभूता: ? सारम्भाः कृष्याद्यारम्भसाहिताः । कति ? सर्वेऽपि बाह्याभ्यन्तराश्चेतनेतरादिरूपा वा । यत एवं ततो याति प्रतिपद्यते । कं? यतिभावं यतित्वं । कोऽसौ ? गही श्रावक: । कदा ? सामायिकावस्थायां । क इव ? चेलोपसृष्टमुनिरिब चेलेन बस्त्रेण उपसृष्ट: उपसर्गवशाद्वेष्टितः स चासो मुनिश्च स इव तद्वत् ।।१२।।
___ सामायिककाल में अणुव्रत महाव्रतपने को प्राप्त होते हैं, इसका समर्थन करते हुए कहते हैं
(यत:) क्योंकि (सामायिके) सामायिक के काल में ( सारम्भाः) आरम्भ सहित (सर्वेऽपि) सभी (परिग्रहाः) परिग्रह (नैव सन्ति) नहीं ही हैं (ततः) इसलिए