Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 279
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार इस प्रकार दिये जाने वाले दान का फल दिखलाते हुए कहते हैं- (खल) निश्चय से ( अले) जिस प्रकार ( वारि ) जल ( रुधिरं ) खून को ( धावते ) धो देता है, उसी प्रकार ( गृहविमुक्तानां ) गृह रहित निग्रंथ ( अतिथीनां ) मुनियों के लिये दिया हुआ (प्रतिपूजा) दान ( गृहकर्मणा ) गृहस्थी सम्बन्धी कार्यों से ( निचितमपि ) उपार्जित अथवा सुदृढ़ भी ( कर्म ) कर्मको ( विमादि ) नष्ट कर देता है । [ २६३ टीकार्थ - जिनके सभी तिथियां एक समान हैं, ऐसे गृहत्यागी अतिथियों को दान देने से पापरूप व्यापारादि कार्यों से उपार्जित किये हुए घोर पाप भी नष्ट कर दिये जाते हैं । इसी अर्थ का समर्थन करने के लिए दृष्टान्त देते हैं- जिस तरह मलिन रक्त को पवित्र जल धो डालता है, उसी प्रकार दान देने से पापकर्म नष्ट हो जाते हैं । इत्याह विशेषार्थ - गृहस्थ जीवन में सदा पंचसूना आरम्भ होते रहते हैं-जैसे ओखली में धान्य आदि कूटना, चक्की से गेहूं आदि धान्य पीसना, चूल्हा आदि जलाकर भोजन बनाना, पानी भरना, बुहारी आदि से सफाई करना, इसके अतिरिक्त व्यापार आदि आजीविका करना, इन सभी कार्यों में गृहस्थ सदा तत्पर रहता है और निरन्तर पाप कर्मों का संचय किया करता है । इन पाप कार्यों को करता हुआ गृहस्थ यदि सत्पात्रमुनियों को आहार दानादि देता है तो उससे संचित हुआ पुण्य उस पूर्व संचित पापको उसी प्रकार धो देता है नष्ट कर देता है जिस प्रकार कि पानी अपवित्र खून को धो डालता है ।। २४ ।। ११४ ।। साम्प्रतं नवप्रकारेषु प्रतिग्रहादिषु क्रियमाणेषु कस्मात् किं फलं सम्पद्यत, उच्चैर्गोत्रं प्रणतेर्भोगो, दानादुपासनात्पूजा । भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ॥ २५ ॥ तपोनिधिषु यतिषु । प्रणतेः प्रणामकरणादुच्चैर्गोत्रं भवति । तथा दानादर्शनशुद्धिलक्षणान्द्रोगो भवति । उपासनात् प्रतिग्रहणादिरूपात् सर्वत्र पूजा भवति । भक्तेर्गुणानुरागजनितान्तः श्रद्धाविशेषलक्षणायाः सुन्दररूपं भवति । स्तवनात् श्रुतजलधीत्यादिस्तुतिविधानात् सर्वत्र कीर्तिर्भवति ॥ २५॥

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