Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्राधकाचार
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वशात्तेषां विक्रिया स्यादित्याह-उत्पातोऽपि यदि स्यात् तथापि न तेषां बिक्रिया लक्ष्या। कथम्भूतः उत्पातः ? त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटुः पिलोकाय साहन्तिर पलकरणेपटुः समर्थः ।। १२ ।।
आगे अनन्तकाल बीत जाने पर किसी समय सिद्धों की विद्या आदि में अन्यथाभाव हो जायेगा, अतः वे निरतिशय और निरवधि किस प्रकार हए, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं--
{कल्पशते) सेंकड़ों कल्पकाल बराबर ( काले ) काल के ( गतेऽपि ) बीत जाने पर भी (च) और (यदि) यदि ( त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटः ) तीनों लोकों को संभ्रान्त करने में समर्थ (उत्पातः अपि) उत्पात भी (स्यात्) होवे तो भी (शिवानां) सिद्धों में (विक्रिया) विकार (न लक्ष्या) दिखाई नहीं देता।
टोकार्थ-बीस कोड़ा कोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है । ऐसे सैंकड़ों कल्पकालों के बीत जाने पर भी सिद्धजीवों में कोई विकार लक्षित नहीं होता। तथा तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने में समर्थ ऐसा भी उत्पात यदि हो जावे तो भी सिद्धों में कोई विकार नहीं होता, इस प्रकार की सिद्धजीवों की अवस्था होती है ।
विशेषार्थ--यद्यपि द्रव्य का स्वभाव सत्रूप है तथापि सभी द्रव्यों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता रहता है इसलिए कोई भी द्रव्य कूटस्थ नहीं है। इसी प्रकार सिद्ध परमेष्ठी में भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता रहता है इसलिए सिद्ध भगवान भी कटस्थ नहीं हैं। सिद्धों में अर्थपर्याय रूप परिणमन प्रतिक्षण होता रहता है। किन्तु यहां इस सूक्ष्म परिणमन की विवक्षा नहीं है । यहाँ तो व्यञ्जन पर्यायों में होने वाले स्थल परिणमन की विवक्षा की अपेक्षा से कथन है। सिद्धावस्था प्राप्त होने के पश्चात सैंकड़ों कल्पकालों के व्यतीत होने पर भी उनमें किसी प्रकार का परिणमन नहीं होता है, न उनके अनन्तगुणों में न्यूनता आती है, और न उनकी सिद्धपर्याय ही नष्ट होकर मर-नारकादि पर्यायें प्राप्त होती है। क्योंकि वहां से वापस लौटने के कारण जो रागादि विकार भाव हैं वे सर्वथा नाश को प्राप्त हो चुके हैं । इसलिए सिद्धों में किसी प्रकार का बाह्य परिवर्तन नहीं होता, वे सदा अपने स्वभाव में ही स्थिर रहते है . ।। १२ ।। १३३ ॥