Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरपड़ धावकाचार
[ ३४१ टीकार्थ-यहां पर स्वयं शब्द आत्मा का वाचक है। जिसके कलंकदोष विशेषरूप से नष्ट हो गये हैं उसे वीतकलंक कहते हैं। यह बीतकलंक विशेषण विद्याज्ञान-दृष्टि-दर्शन और क्रिया-चारित्र इन तीनों के साथ लगता है । जिस भव्य ने अपनी आत्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूपी रत्नों का करण्ड-पिटारा बनाया है अर्थात् जिसकी आत्मा में ये प्रकट हो गये हैं उसे सर्व अर्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप समस्त अर्थों की सिद्धि उस प्रकार हो जाती है जिस प्रकार पति की इच्छा रखने वाली कन्या स्वयंबर विधान में अपनी इच्छा से पति को प्राप्त करती है 1
विशेषार्थ-जिस पुरुष ने अपनी आत्मा को कलंक यानी अतिचार रहित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकुचारित्ररूप रत्नों के लिए पिटारे स्वरूप बनाया है। अर्थात् रत्नत्रय धारण करने का पात्र बनाया है उसे तीनों लोकों की सर्वोत्कृष्ट अर्थ की सिद्धि स्वयमेव प्राण्त हो जाती है।
जब तक रत्नत्रय की ऐक्य परिणतिरूप निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती उसके पहले व्यवहार रत्नत्रय जघन्य भाव को प्राप्त होता है क्योंकि उसके साथ रागांश की बहुलता पायी जाती है, इसलिये बह देवायु आदि पुण्य प्रकृतियों के बन्ध का कारण कहा गया है परमार्थ से पुण्य प्रकृतियों के बन्ध का कारण रत्नत्रय के साथ रहने वाला रागांश ही है, रत्नत्रय नहीं । जैसे गर्म घी जला देता है, किन्तु बास्तव में घी नहीं जलाता, जलाने वाली तो वह अग्नि है जिसने घी को गर्म कर दिया है। उसो प्रकार रत्नत्रय बन्ध का कारण नहीं है किन्तु उसके साथ रहने वाला रागांश बन्ध का कारण है।
इस प्रकार जघन्य भावको प्राप्त हुआ रत्नत्रय, धर्म अर्थ और काम का साधक है और उत्कृष्ट रत्नत्रय मोक्षका साधक है। इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कथा या उसी धर्म का फल यहां अन्त में बतलाया है। तथा ग्रन्थ का नाम भी सूचित किया है ।। २८ ।। १४६ ।।
रत्नकरण्डकं कुर्वतश्च मम यासौ सम्यक्त्व सम्पत्ति द्धिंगता सा एतदेव कुर्यादित्याह
सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव, सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु ।