Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 328
________________ ३१२ ]] रत्नकरण्ड श्रावकाचार देखने, सुनने और चिन्तन में भी न आ सके, ऐसा अभ्युदय सुख समीचीन धर्म-साधना का ही फल है ।।१४।११३५।।। साम्प्रतं योऽसौ सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकस्तस्य कति प्रतिमा भवन्तीत्याशंक्याह श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणः सह संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥१५॥ देशितानि प्रतिपादितानि। कानि ? श्रावकपदानि श्रावकगुणस्थानानि श्रावकप्रतिमा इत्यर्थः । कति ? एकादश । कैः ? देवस्तीर्थकरैः । येषु श्रावकपदेषु । खलु स्फुटं सन्तिष्ठन्तेऽवस्थिति कुर्वन्ति । के ते ? स्वगुणाः स्वकीयगुणस्थानसम्बद्धा: गुणा: । कै: सह ? पूर्वगुणः पूर्वगुणस्थानवर्तिगुणैः सह । कथंभूताः ? क्रमविवृद्धाः सम्यग्दर्शनमादि कृत्वा एकादशपर्यन्तमेकोत्तरवृद्धया क्रमेण विशेषेण वर्धमानाः ।।१५।। अब सल्लेख ना को करने वाला जो यह श्रावक है उसके कितनी प्रतिमाएँ होती हैं, यह आशङ्का उठाकर कहते हैं [देव:] तीर्थकर भगवान के द्वारा [ एकादश ] ग्यारह [ श्रावकपदानि ] श्रावक की प्रतिमाएँ [देशितानि] कही गयी हैं । [येषु] जिनमें [ खलु ] निश्चय से [स्वगुणाः] अपनी प्रतिमा सम्बन्धी गुण [पूर्वगुणः सह] पूर्व प्रतिमा सम्बन्धी गुणों के साथ [क्रमविवृद्धाः] क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हुए [संतिष्ठन्ते ] स्थित होते हैं। टीकार्थ-श्रावक के जो पद-स्थान हैं, वे श्रावक की प्रतिमा कहलाती हैं। तीर्थंकरदेव ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं कही हैं, उन प्रतिमाओं में अपनी-अपनी प्रतिमाओं से सम्बन्धित गुण पिछली प्रतिमाओं से सम्बन्ध रखकर क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हुए ( सम्यग्दर्शन को आदि लेकर ग्यारह प्रतिमा तक ) विशेषरूप से बढ़ते जाते हैं । अर्थात अगलो प्रतिमाओं में स्थित पुरुष को पूर्व की प्रतिमा से सम्बन्धित गुणों का परिपालन करना अनिवार्य है। विशेषार्थ - भगवान सर्वज्ञ ने एकदेशचारिश को धारण करने वाले श्रावक के ग्यारह स्थान बतलाये हैं। यह एकदेशचारित्र अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से होता है तथा साथ-साथ प्रत्याख्यानावरण कषाय के मन्द-मन्दतर-मन्दतम उदय

Loading...

Page Navigation
1 ... 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360