Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार टोकाय-'व्रतानि यस्य सन्तीति वती' जिसके व्रत होते हैं वह व्रती कहलाता है, ऐमा गणधरदेवादिकों ने कहा है। व्रती शब्द से स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होकर व्रतिक शब्द बना है। माया-मिथ्या-निदान ये तीन शल्य हैं इन तीनों शल्यों के निकलने पर ही व्रती हो सकता है, इन तीन शल्यों से रहित होता हुआ जो अतिचार रहित पांच अणुव्रतों को धारण करता है, तथा तीन गुणवत और चार शिक्षाव्रत के भेद से सात शीलों को भी जो धारण करता है, वह व्रतिकश्रावक कहलाता है ।
विशेषार्थ-जिसके सम्यग्दर्शन और मूलगुण परिपूर्ण हैं तथा जो माया, मिथ्यात्व और निदानरूप तीन शल्य से रहित है और इष्ट विषयों में राग तथा अनिष्ट विषयों में द्वेष को दूर करनेरूप साम्यभाव की इच्छा से निरतिचार उत्तर गुणों को बिना किसी कष्ट के धारण करता है, वह व्रतिकश्रावक है ।
सम्यग्दर्शन और मूलगुणों का अन्तरंग आश्रय तो जीव का उपयोग मात्र है और बहिरंग आश्रय चेष्टामात्र है, दोनों प्रकार से अतिचार न लगने पर सम्यग्दर्शन और मूल गुण सम्पूर्ण और अखण्ड होते हैं । जब ये सम्पूर्ण हों तभी श्रावक व्रत प्रतिमा का अधिकारी होता है। पहली प्रतिमा में तीन शल्यों का अभाव नहीं हुआ था किन्तु व्रत प्रतिमा का धारक नि:शल्य होता है ।
शरीर में घुस जाने वाले कांटे को शल्य कहते हैं । क्योंकि वह कष्ट देता है। उसी तरह कर्म के उदय से होने वाला विकार जीव को शारीरिक और मानसिक कष्ट देता है । अतः शल्य के समान होने से उसे शल्य कहते हैं। शल्य के तीन भेद हैंमाया-मिथ्या-निदान । तत्त्वों और देव, शास्त्र, गुरु के विषय में विपरीत अभिप्राय को मिथ्यात्व कहते हैं। ठगने को माया कहते हैं । तप, संयम आदि के प्रभाव से फल प्राप्ति के लिए होने वाली इच्छा विशेष को निदान कहते हैं । निदान प्रशस्त भी होता है और अप्रशस्त भी होता है । प्रशस्त निदान भी दो प्रकार का है। एक मुक्ति निमित्तक प्रशस्त निदान और दूसरा संसार निमित्तक प्रशस्त निदान । कर्मक्षय आदि की इच्छा करना मुक्ति निमित्तक प्रशस्त निदान है । और जैन धर्म की सिद्धि के लिए उच्चजाति आदि की इच्छा करना संसार निमित्तक प्रशस्त निदान है।
प्राचार्य अमितमति ने कहा है-कर्मों का अभाव, संसार के दुःख की हानि, दर्शन-ज्ञान की सिद्धि को चाहना मुक्ति हेतु निदान है। जिनधर्म की सिद्धि के लिए