Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 352
________________ ३३६ ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार विशेष- आनार्य समन्तभट ने कहा है कि आरम्भ-परिग्रह और विवाह आदि ऐहिक कार्यों में जिसकी अनुमति नहीं है उसे अनुमतिविरत जानो। चारित्रसार में आहार आदि आरम्भों में अनुमति न देने वाले को अनुमति विरत कहा है । आचार्य वसुनन्दी ने कहा है जो स्वजनों और फरजनों के पूछने पर भी अपने गृह सम्बन्धी कार्यों में अनुमति नहीं देता है, वह अनुमति विरत है। 'लाटी संहिता' में भी ऐसा ही कहा है। इसकी विशेष विधि कहते हैं यह अनुमतिविरत थाबक चैत्यालय में रहकर स्वाध्याय करे। मध्याह्नकाल की वन्दना के पश्चात् बुलाने पर अपने पुत्रादि के या जिस किसी धार्मिक के घर भोजन करे। ___ आरम्भत्याग प्रतिमा में तो नया धन कमाने का त्याग करता है, परिग्रहत्याग प्रतिमा में परिग्रह के स्वामित्व का त्याग करता है। तथा अनुमतित्याग प्रतिमा में उत्तराधिकारी पुत्र या बन्धु आदि किसी भी व्यापार या गृह कार्यों में सलाह नहीं देता है, चाहे हानि हो या लाभ वह तो मध्यस्थभाव से रहता है, चित्त में हर्ष-विषाद नहीं करता । एक बार ही भोजन-पान करता है । इस प्रतिमा का धारी पारलौकिक धार्मिक कार्यों में अनुमति दे सकता है। ऐसा समभाबी अनुमतित्याग दशम प्रतिमा का धारक होता है। ज्ञानाचार आदि पांच आचारों के पालने में तत्पर दशम प्रतिमाधारी श्रावक घर से निकलने की इच्छा हो जाने पर गुरुजन, बन्धु-बान्धव और पुत्रादि से यथायोग्य पछे । प्रवचनसार के चारित्र प्रकरण के प्रारम्भ में अमृतचन्द्राचार्य ने अध्यात्म शैली में इसकी विधि कही है, वहां से देखना चाहिए। इस प्रकार दार्शनिक आदि मैष्ठिक श्रावकों में मुख्य अनुमति विरत श्रावक घर त्यागने पर्यन्त की चर्या को समाप्त करके आत्मशोधन के लिये ग्यारहवें उहिष्ट विरत स्थान को प्राप्त करे ॥२५।।१४६।। इदानीमुद्दिष्टविरति लक्षणगुणयुक्तत्वं श्रावकस्य दर्शयन्नाहगृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे बतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥२६॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360