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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
देखने, सुनने और चिन्तन में भी न आ सके, ऐसा अभ्युदय सुख समीचीन धर्म-साधना का ही फल है ।।१४।११३५।।।
साम्प्रतं योऽसौ सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकस्तस्य कति प्रतिमा भवन्तीत्याशंक्याह
श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणः सह संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥१५॥
देशितानि प्रतिपादितानि। कानि ? श्रावकपदानि श्रावकगुणस्थानानि श्रावकप्रतिमा इत्यर्थः । कति ? एकादश । कैः ? देवस्तीर्थकरैः । येषु श्रावकपदेषु । खलु स्फुटं सन्तिष्ठन्तेऽवस्थिति कुर्वन्ति । के ते ? स्वगुणाः स्वकीयगुणस्थानसम्बद्धा: गुणा: । कै: सह ? पूर्वगुणः पूर्वगुणस्थानवर्तिगुणैः सह । कथंभूताः ? क्रमविवृद्धाः सम्यग्दर्शनमादि कृत्वा एकादशपर्यन्तमेकोत्तरवृद्धया क्रमेण विशेषेण वर्धमानाः ।।१५।।
अब सल्लेख ना को करने वाला जो यह श्रावक है उसके कितनी प्रतिमाएँ होती हैं, यह आशङ्का उठाकर कहते हैं
[देव:] तीर्थकर भगवान के द्वारा [ एकादश ] ग्यारह [ श्रावकपदानि ] श्रावक की प्रतिमाएँ [देशितानि] कही गयी हैं । [येषु] जिनमें [ खलु ] निश्चय से [स्वगुणाः] अपनी प्रतिमा सम्बन्धी गुण [पूर्वगुणः सह] पूर्व प्रतिमा सम्बन्धी गुणों के साथ [क्रमविवृद्धाः] क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हुए [संतिष्ठन्ते ] स्थित होते हैं।
टीकार्थ-श्रावक के जो पद-स्थान हैं, वे श्रावक की प्रतिमा कहलाती हैं। तीर्थंकरदेव ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं कही हैं, उन प्रतिमाओं में अपनी-अपनी प्रतिमाओं से सम्बन्धित गुण पिछली प्रतिमाओं से सम्बन्ध रखकर क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हुए ( सम्यग्दर्शन को आदि लेकर ग्यारह प्रतिमा तक ) विशेषरूप से बढ़ते जाते हैं । अर्थात अगलो प्रतिमाओं में स्थित पुरुष को पूर्व की प्रतिमा से सम्बन्धित गुणों का परिपालन करना अनिवार्य है।
विशेषार्थ - भगवान सर्वज्ञ ने एकदेशचारिश को धारण करने वाले श्रावक के ग्यारह स्थान बतलाये हैं। यह एकदेशचारित्र अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से होता है तथा साथ-साथ प्रत्याख्यानावरण कषाय के मन्द-मन्दतर-मन्दतम उदय