Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 309
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ २९३ समाधिमरण के लिए शरीर का संस्कार करने की विधि कहते हैं यदि शरीर को पहले से कृश न किया जाय तो अन्तिम समय में शरीरधारी को आर्तध्यान होता है, जल्दी शरीर छूटता नहीं है । अतः शरीर-शोधन के लिए दूध आदि मधुर पेय देना चाहिए तथा हल्का विरेचन करना चाहिए, क्योंकि पेट में यदि मल होता है तो वह पीड़ा देता है । अब यह बतलाते हैं कि कषायों को कृश किये बिना शरीर को कृश करना निष्फल है आचार्य गुणभद्रस्वामी ने कहा है कि-इस लोक में लोक पूजा का विचार न करके निरन्तर शास्त्र का अध्ययन करे तथा शरीर को कृश करने के साधनों के द्वारा उसे कृशः करे, जिससे पाय और विषयरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके, क्योंकि मुनिगण तप और शास्त्रअध्ययन का फल समभाव को मानते हैं । 'जिनका मन आहार में आसक्त है वे कषायों को नहीं जीत सकते, केवल भेदज्ञान के बल से ही कषायों को जीता जा सकता है' इसी को बतलाते हैं - अधिकतर आहार के मद से जो अन्धे हैं, जिन्हें स्व-पर का ज्ञान नहीं है उनके द्वारा कषायों को जीतना अशक्य है, किन्तु जो आत्मा और शरीर के भेदज्ञान से उन कषायों को जीतते हैं वे ही जयशील होते हैं। श्रावक अथवा मुनिगण मरण समय में निश्चल चित्तपूर्वक अपने निर्मल चित्स्वरूप में लीन होकर प्राण त्याग करने पर नाना प्रकार के सांसारिक अभ्युदयों को भोगकर मुक्ति के भागी होते हैं ।।३-४।।१२४-१२५॥ एवंविधामालोचनां कृत्वा महाव्रतमारोप्यैतत् कुर्यादित्याहशोक भयमवसादं क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाधं श्रुतैरमृतः ॥५॥ प्रसाद्यं प्रसन्न कार्य । किं तत् ? मनः । के: ? श्रुतैरागमवाक्यैः । कथंभूतः ? अमृतः अमृतोपमैः संसारदु:खसन्तापापनोदकैरित्यर्थः । किं कृत्वा ? हित्वा । किं

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