Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 319
________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार [ ३०३ भाविभोगाद्याकांक्षणं । एतानि पंचनामानि येषां ते तन्नामानः सल्लेखनाया: पंचातिचाराः । जिनेन्द्र स्तीर्थकरः । समादिष्टा आगमे प्रतिपादिताः । ८।। अब सल्लेखना के अतिचार कहते हैं (जीवितमरणाशंसे) जीविताशंसा, मरणाशंसा, (भयमित्रस्मृति निदाननामानः) भय, मित्रस्मृति और निदान नाम से युक्त ( पञ्च ) पाँच ( सल्लेखनातिचाराः ) सल्लेखना के अतिचार ( जिनेन्द्र :) जिनेन्द्र भगवान के द्वारा ( समादिष्टा: ) कहे गये हैं। टोकार्थ- लेखका अतिमान कहते हैं---गायना धारण कर ऐसी इच्छा करना कि 'मैं कुछ समय के लिए और जीवित रहूँ' तो अच्छा है। यह जोषिताशंसा नामका अतिचार है। भूख, प्यास की वेदना होने पर ऐसी इच्छा होना कि 'मैं जल्दी मर जाऊं तो अच्छा है, यह मरणाशंसा नामका अतिचार है । इस लोक भय और परलोकभय की अपेक्षा भय दो प्रकार का है। 'मैंने सल्लेख ना धारण तो की है किन्तु अधिक समय तक मुझे भूख-प्यास की वेदना सहन नहीं करनी पड़े' इस प्रकार का भय होना इहलोकभय कहलाता है । तथा 'इस प्रकार के दुर्धर अनुष्ठान का परलोक में विशिष्ट फल प्राप्त होगा कि नहीं' ऐसा भय उत्पन्न होना परलोकभय है । बाल्यादि अवस्था में मित्रों के साथ जो क्रीड़ा की थी उन मित्रों का स्मरण करना मित्रस्मृति नामक अतिचार है और आगामी भोगों को आकांक्षा रखना निदान नामक अतिचार है। इस प्रकार जिनेन्द्रदेव ने सल्लेखना के पाँच अतिचार आगम में प्रतिपादित किये हैं। विशेषार्थ-उमास्वामी प्राचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में सल्लेखना के अतिचार इस प्रकार बतलाये हैं-'जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि' अर्थात् जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये पाँच अतिघार हैं । समन्तभद्रस्वामी ने मुखानुबन्ध के स्थान पर भय नामका अतिचार माना है। पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण करना सुखानुबन्ध कहलाता है । इसे समन्तभद्राचार्य ने निदान में गर्भित करके भय नामक अतिचार पृथक् स्वीकृत किया है । आचार्य पाँच अतिचारों को दूर करने की शिक्षा देते हैं-आचार्यादि के द्वारा की जा रही परिचर्या आदि विधि में तथा बड़े सम्पन्न पुरुषों के द्वारा किये जा रहे

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