Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 305
________________ रत्नकरण्ड धावकाचार [ २८९ आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाच्यत मामरणस्थायि निश्शेषम् ॥ ४ ॥ युगलं ॥ स्वयं क्षान्त्वा । प्रियैर्यचनैः स्वजनं परिजनमपि क्षमयेत् । किं कृत्वा ? अपहाय त्यक्त्वा । के ? स्नेहमुपकार के वस्तुनि प्रीत्यनुबन्धं । वैरमनुपकारकं द्वेषानुबन्धं । संगं पुत्रस्त्र्यादिकं । ममेदमहमस्येत्यादिसम्बन्धं परिग्रहं बाह्याभ्यन्तरं । एतत्सर्वमपहाय शुद्धमना निर्मलचित्तः सन् क्षमयेत् । तथा आरोपयेत् स्थापयेदात्मनि । किं तत् ? महाव्रतम कथंभूतं ? आमरणस्थायि मरणपर्यन्तम् निःशेषं च पंच प्रकारमपि । किं कृत्वा ? आलोच्य । किं तत् ? एनो दोषं । किं तत् ? सर्वं कृतकारितमनुमतं च स्वयं हि कृतं हिंसादिदोष, कारितं हेतुभावेन, अनुमतमन्येन क्रियमाणं मनसा श्लाघितं । एतत्सर्वमेनो निर्व्याजं दशालोचनादोषवर्जितं यथा भवत्येवमालोचयेत् । दश हि आलोचनादोषा भवन्ति । तदुक्त - आकंपिय अणुमणिय जं दिट्ठ बादरं च सुहमं च । छन्नं सद्दाउलयं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥ १ ॥ इति । आगे समाधिमरण के विषय में यत्न करने वाले पुरुष को ऐसा करके यह करना चाहिए, यह कहते हैं समाधिमरण को धारण करने वाला पुरुष ( स्नेहं ) प्रीति, ( वैरं ) वर, (संग ) ममत्वभाव (च) और (परिग्रह) परिग्रह को ( अपहाय ) छोड़कर ( शुद्धमनाः ) स्वच्छ हृदय होता हुआ ( प्रियैः वचन ) मधुर वचनों से ( स्वजनं ) अपने कुटुम्बी जन तथा ( परिजनमपि ) परिवार के लोगों को ( क्षान्त्वा ) क्षमा कराकर ( क्षमयेत् ) स्वयं क्षमा करे । तथा ( कृतकारितम् अनुमतं च ) कृत, कारित और अनुमोदित ( सर्व ) सभी (एन) पापों की ( निर्व्याजं ) निश्चल भाव से ( आलोच्य ) आलोचना कर ( आमरण स्थायि ) मरणपर्यन्त स्थिर रहने वाले ( निश्शेषं महाव्रतं ) समस्त महाव्रतों को ( आरोपयेत् ) धारण करे । टीकार्थ --- उपकारक वस्तु में जो प्रीति उत्पन्न होती है, उसे स्नेह कहते हैं । अनुपकारक वस्तु में जो द्वेष के भाव होते हैं उसे बैर कहते हैं । पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं और मैं उनका हूं इस प्रकार 'ममेदं' भाव को संग-परिग्रह कहते हैं । वह दो प्रकार का

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