Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २४५ पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु ।
चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥१६॥
प्रोषधोपवासः पुनतिव्यः । कदा ? पर्वणि चतुर्दश्यां । न केवलं पर्वणि, अष्टम्यां च । किं पुन: प्रोषधोपवासशब्दाभिधेयं ? प्रत्याख्यानं । केषां ? चतुरभ्यवहार्याणां चत्वारि अशनपानखाद्यलेह्यलक्षणानि तानि चाभ्यवहार्याणि च भक्षणीयानि तेषां । कि कस्यांचिदेवाष्टम्यां चतुर्दश्यां च तेषां प्रत्याख्यानयित्याह-सदा सर्वकाल । काभिः इच्छाभितविधानवाञ्छाभिस्तेषां प्रत्याख्यानं न पुनर्व्यवहार कृतधरणकादिभिः ।।१६।।
प्रोषधोपवास नामक शिक्षानत का व्याख्यान करते हुए कहते हैं
(पर्वणि) चतुर्दशी (च) और (अष्टम्यां) अष्टमी के दिन (सदा) सर्वदा के लिए (इच्छाभिः) व्रतविधान को वाञ्छा से ( चतुरभ्यवहार्याणां ) चार प्रकार के आहारों का (प्रत्याख्यानं) त्याग करना ( प्रोषधोपवासः ) प्रोषधोपवास ( ज्ञातव्य:) जानना चाहिए।
टोकार्थ-प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी-पर्व के दिनों में अन्न, पान, खाद्य और लेड इन चार प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवासव्रत कहलाता है । यहां पर जो 'सदा' शब्द दिया है उससे यह सिद्ध होता है कि चार प्रकार के आहार का त्याग सदा के लिए अति जीवनपर्यन्त की प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी के लिए होना अनिवार्य है। यह त्याग व्रत की भावना से होना चाहिए। न कि लोक व्यवहार में किये गये धरणा आदि की भावना से अर्थात्-अपनी किसी मांग को स्वीकार करने के लिए त्याग आदि करना धरणा है । ऐसे त्याग को प्रोषधोपवास नहीं कहते हैं। विशेषार्थ--"उपेत्याक्षाणि सर्वाणि निवृत्तानि स्वकार्यतः ।
वसन्ति यत्र स प्राज्ञैरूपवासोऽभिधीयते ।।" अमितगतिश्रावकाचार पूज्यपाद स्वामी ने उपवास की इस प्रकार निरुक्ति की है। यथा-'शब्दादि ग्रहणं प्रति निवृत्तीत्सुक्यानि पञ्चापि इन्द्रियाण्युपेत्य तस्मिन्वसन्तीव्युपवासः' जिसमें पाँचों इन्द्रियां अपने-अपने शब्दादि विषयों को ग्रहण करने में उदासीन रहती हैं, उसे उपवास कहते हैं । अथवा 'प्रोषधे उपवास: प्रोषधोपवास:' अर्थात् पर्व के दिनों में उपवास करने को प्रोषधोपवास कहते हैं । पूज्यपाद स्वामी के अनुसार प्रोषध शब्द