Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
का नाश संवर और निर्जरा के द्वारा होता है । इस प्रकार मोक्ष के स्वरूप के चिन्तन के अन्तर्गत संवर और निर्जरा तत्व का चिन्तन आता है ।
आचार्यों ने सामायिक दो प्रकार की बतलाई है - निश्चय सामायिक और व्यवहार सामायिक । निश्चय सामायिक की सिद्धि के लिए व्यवहार सामायिक करने का उपदेश है ।
व्यवहार सामायिक अर्हन्त का अभिषेक, पूजा, स्तुति और जपरूप है और निश्चयसामायिक एकाग्रतापूर्वक आत्मा का ध्यान है। साम्यभावरूप से सहित सामायिक दो घड़ी मात्र भी हो जाय तो महान् कर्मों की निर्जरा होती है । सामायिक की महिमा का वर्णन करने में इन्द्र भी समर्थ नहीं है । सामायिक के प्रभाव से अमध्य भी ग्रैवेयकपर्यन्त उत्पन्न हो जाते हैं । सामायिक के समान और कोई भी सुख का कारण नहीं है अतः आत्महित के लिए सामायिक करनी चाहिए। जिन्हें और कुछ ज्ञान नहीं है उनको भी मन-वचन-काय की एकाग्रतापूर्वक तथा समस्त आरम्भ परिग्रह का त्याग कर पंच नमस्कार मन्त्र का ध्यान करना चाहिए || १४ | ११०४ । ।
साम्प्रतं सामायिकस्यातीचारानाह -
arrataमानसानां दुःप्रणिधानान्यनादरास्मरणे । सामयिकस्यातिगमा व्यज्यन्ते पञ्च भावेन ॥ १५ ॥
व्यज्यन्ते कथ्यन्ते । के ते ? अतिगमा अतिचाराः । करय ? सामयिकस्य । कति ? पंच । कथं ? भावेन परमार्थेन । तथा हि । वाक्कायमानसानां दुष्प्रणिधानमित्येतानि त्रीणि । अनादरोऽनुत्साहः । अस्मरणमनैकाग्रयम् ||१५||
सामायिक के अतिचार कहते हैं
(वाक्काय मानसाना) वचन, काय और मनके ( दुष्प्रणिधानानि ) दुष्प्रणिधान अर्थात् वाग्दुष्प्रणिधान, कायदुष्प्रणिधान, मनोदुष्प्रणिधान ( अनादरस्मरणे ) अनादर और अस्मरण ये (पञ्च ) पांच ( भावेन ) परमार्थ से ( सामायिकस्य ) सामायिक के ( अतिगमाः ) अतिचार (व्यज्यन्ते ) प्रकट किये जाते हैं ।