Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २५५ है, तथा उनके गुणों में अनुराग रखते हुए उनके कष्टों को दूर करना, उनके पैर दबाना, आदि सब वैयावृत्य है। सात गुणों से सहित शुद्ध श्रावक के द्वारा पांच पाप क्रियाओं से रहित मुनियों को जो नवधाभक्ति से आहार दिया जाता है उसे दान कहते हैं।
___ अतिथि शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए उसका लक्षण बतलाते हैं । 'न तिथिर्यस्यसोऽतिथिः' जिसकी कोई तिथि नहीं है, उसे अतिथि कहते हैं । अन्न का प्रयोजन शरीर की आयु पर्यन्त स्थिति है और शरीर की स्थिति का प्रयोजन ज्ञानादि की सिद्धि है । उस अन्न के लिए जो स्वयं बिना बुलाये संयम की रक्षा करते हुए सावधानतापूर्वक दाता के घर जाते हैं, वे अतिथि हैं ।
ये अतिथि-साधु खाने के लिए नहीं जीते हैं, किन्तु जीवित रहने के लिए ही भोजन ग्रहण करते हैं। जीवित रहने का उद्देश्य है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को पूर्ण करना । उनकी पूर्ति होना ही सिद्धि है | बह शरीर के बिना सम्भव नहीं है और शरीर की स्थिति भोजन के बिना सम्भव नहीं है । कहा भी है--
कायस्थित्यर्थमाहारः, कायो ज्ञानार्थ मिप्यते ।
ज्ञानं कर्मविनाशाय, तन्नाशे परमं सुखम् ।। अर्थात्-शरीर की स्थिति के लिए भोजन है, शरीर ज्ञान के लिए है। ज्ञान कर्मविनाश के लिए है और कर्मविनाश होने पर परमसुख की प्राप्ति होती है ।
अतः उसे स्वयं पूर्ण सावधानीपूर्वक चलाते हुए दाता के घर आहारार्थ जाना पड़ता है, ऐसे साधु को अतिथि कहते हैं । तथा तिथि से प्रयोजन है कि कोई निश्चित दिन, समय । वह जिनको नहीं है वह अतिथि है अर्थात् जिनके आने का काल नियत नहीं है । पूज्यपावस्वामी ने अतिथि शब्द के यही दो अर्थ किये हैं। सोमदेवसरि ने एक नया ही अर्थ किया है। पांचों इन्द्रियों की अपने-अपने विषय में प्रवृत्ति ही पांच तिथियां हैं । और इन्द्रियों की अपने विषय में प्रवृत्ति संसार का कारण है अतः उनसे जो मुक्त है, वह अतिथि है । ।।२१।।१११।।
न केवलं दानमेव वैयाबृत्यमुच्यतेऽपि तु