Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 274
________________ २५८ ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार . इत्येतः सप्तभिर्गुणः समाहितेन सहितेन तु दात्रा दानं दातव्यं । कैः कृत्वा ? नवपुण्यः । तदुक्तं-- पडिगहमुच्चट्ठाणं पादोदयमच्चणं च पणमं च । मणबयणकायसुद्धी एसणसुद्धी य णवविहं पुण्णं ।। एतनवभिः पुण्यः पुण्योपार्जन हेतुभिः ।।२३।। आगे दान क्या कहलाता है, यह कहते हैं ( सप्तगुणसमाहितेन ) सात गुणों से सहित और ( शुद्धन ) कौलिक, आचारिक तथा शारीरिक शुद्धि से सहित दाता के द्वारा ( अपसूनारम्भाणां ) गृहसम्बन्धी कार्य तथा खेती आदि के आरम्भ से रहित ( आर्याणां ) सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों का (नवपुण्यैः) नवधाभक्ति पूर्वक जो । प्रतिपत्तिः ) आहारादि के द्वारा गौरव किया जाता है (तत्) वह (दान) दान (इष्यते) माना जाता है। ____टोकार्थ-सम्यग्दर्शनादि गुण से सहित मुनियों का आहार आदि धान के द्वारा जो गौरव और आदर किया जाता है, वह दान कहलाता है । जीवघात के स्थान को सना कहते हैं। सूना के पांच भेद हैं जैसे कि कहा है-खण्डनो-ऊखली से कूटना, पेषणी-चक्की से पीसना, चुल्ली-चूल्हा जलाना, उपकुम्भ-पानी भरना और प्रमाजिनीबहारी से जमीन झाड़ना । गृहस्थ के ये पांच हिंसा के कार्य होते हैं इसलिए गृहस्थ मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता। खेती आदि व्यापार सम्बन्धी कार्य आरम्भ कहलाते हैं। जो पंचसूना और आरम्भ से रहित हैं, वे साधु हैं, ऐसे साधुओं को सात गुणों से सहित दाता के द्वारा दान दिया जाता है। जैसा कि कहा है-श्रद्धा सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलब्धता, क्षमा, सत्य ये सात गुण जिस दाता के होते हैं वह दाता प्रशंसनीय कहलाता है। इन सात गुणों के सिवाय दाता की शुद्धि होना भी आवश्यक है। दाता की शुद्धता तीन प्रकार से बतलाई है, कुल से, आचार से और शरीर से । जिसकी वंशपरम्परा शुद्ध है वह कुलशुद्धि कही जाती है। जिसका आचरण शुद्ध है वह आचार शुद्धि है । जिसने स्नानादि कर शुद्ध बस्त्र पहने हैं, जो हीनांग, विकलांग नहीं है, तथा जिसके शरीर से खून पीपादि नहीं झरते हों वह कायशुद्धि है । दान नवधाभक्तिपूर्वक १. संस्कृत टीका में शुद्धिपद की टीका छूटी हुई है । यहाँ अन्य ग्रन्थों के आधार से लिम्खा गया है ।

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