Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड धावकाचार इत्थंभूतेषु स्थानेषु कथं तत्परिचेतव्यमित्याहव्यापार वैमनस्याद्विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्त्या । सामायिक बध्नीयादुपवासे चैकभुक्तं वा ॥१०॥
बध्नीयादतिष्ठेत् । किं तत् ? सामायिक । कस्यां सत्यां ? विनिवत्त्यां । कस्मात ? व्यापारवैमनस्यात् व्यापारः कायादिचेष्टा बैमनस्यं मनोव्यग्रता चित्तकालुष्यं वा तस्माद्विनिवृत्यामपि सत्यां अन्तरात्म विनिवृत्या कृत्वा तद्बध्नीयात् अन्तरात्मनो मनोविकल्पस्य विशेषेण निवृत्या । कस्मिन् सति तस्यां तया तद्वध्नीयात् ? उपवासे चैकभुक्ते वा ।।१०।।
इस प्रकार के स्थानों में सामायिक किस प्रकार बढ़ानी चाहिए, यह कहते हैं--
( व्यापार वैमनस्यात् ) शरीरादिक की चेष्टा और मनकी व्यग्रता अथवा कालपता से (पिनियां) नित्ति होने T (अन्तरात्मबिनिवृत्या) मानसिक विकल्पों की विशिष्ट निवृत्तिपूर्वक (उपवासे) उपवास के दिन ( वा ) अथवा ( एकभुक्ते ) एकाशन के दिन (च) और अन्य समय भी ( सामायिक ) सामायिक ( बध्नीयात् ) करनी चाहिए ।
टीकार्थ-सामायिक की वृद्धि किन भावों से करे ? इसके उत्तर स्वरूप में बतलाते हैं कि व्यापार-शरीर की चेष्टा और वैमनस्यमन की व्यग्रता अथवा चित्त की कलषता से रहित होकर मानसिक विकल्पों को विशेषरूप से हटाते हुए उपवास अथवा एकाशन के दिन विशेषरूप से सामायिक को बढ़ाना चाहिए । यहां पर चकार से उससे अन्य समय का भी ग्रहण होता है अर्थात् उपवास और एकाशन के सिवाय अन्य दिनों में भी सामायिक को बढ़ानी चाहिए।
विशेषार्थ-- इस श्लोक में बतला रहे हैं कि सामायिक के काल में कैसे भाव रहने चाहिए इसकी चर्चा करते हुए कहते हैं कि सामायिक करने के पहले ही शरीर को हिलाना-डुलानारूप चेष्टा न हो, मनमें किसी प्रकार की कलुषता न हो उसे दूर करके ही सामायिक में स्थित होना चाहिए और मन में अनेक प्रकार के विकल्प उठते रखते हैं. उन्हें विशेषरूप से दूर करने का प्रयास करना चाहिए। विचारों को पवित्र