Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
एवं देशावकाशिक ते कृते सति ततः परतः किं स्यादित्याह - सीमान्तानां परतः स्थूलेतर पञ्चपापसंत्यागात् । देशावकाशिकेन च महाव्यतानि प्रसाध्यन्ते ॥ ५ ॥
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प्रसाध्यन्ते व्यवस्थाप्यन्ते । कानि ? महाव्रतानि । केन ? देशावकाशिकेन च न केवलं दिग्विरत्यापितु देशावकाशिकेनापि । कुत: ? स्थूलेतरपंचपापसंत्यागात् स्थूलतराणि च तानि हिंसादि लक्षण पंचपापानि च तेषां सम्यक्त्यागात् । क्व ? सीमान्तानां परत: देशावका शिकव्वतस्य सीमाभूताये 'अन्ताधर्मा' गृहादयः संवत्सरादिविशेषाः तेषां वा अन्ताः पर्यन्तास्तेषां परतः परस्मिन् भागे || ५ ||
इस प्रकार देशावकाशिकवत लेने पर मर्यादा के आगे क्या होता है, यह कहते हैं
( सीमान्तानां ) सीमाओं के अन्तभाग के ( परत: ) आगे ( स्थूलेतर पञ्च पापसंत्यागात ) स्थूल और सूक्ष्म पांचों पापों का सम्यक् प्रकार त्याग हो जाने से ( देशावकाशिकेन च ) देशावकाशिकात के द्वारा भी ( महाग्रतानि ) महानत ( प्रसाध्यन्ते) सिद्ध किये जाते हैं ।
टीकार्थ - देशावका शिकव्रत में गृह आदि और वर्ष मास आदि काल की अपेक्षा जो सीमा निर्धारित की थी उसके आगे स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार से हिंसादि पंच पापों का पूर्णरूप से त्याग हो जाने से सीमा के बाहर दिखत के समान देशावकाशिकव्रत में महाव्रत की सिद्धि होती है ।
विशेषार्थ - जिस प्रकार दिग्नत के द्वारा जीवनपर्यन्त के लिए क्षेत्र को सीमित करके मर्यादा के बाहर जैसे अणुव्रत महाव्रत की संज्ञा को प्राप्त होते हैं उसी तरह कुछ समय के लिए दिव्रत की सीमा को मर्यादित करके देशावकाशिक के द्वारा भी सीमा के बाहर स्थूल और सूक्ष्म पांचों पापों का त्याग हो जाने से महाव्रत की सिद्धि होती है । जिस प्रकार दिव्रत को परिमित करके देशव्त्रत बना उसी प्रकार अन्य बातों को भी परिमित करना आवश्यक है। सीमित मर्यादा में भी अनर्थदण्ड का बिना प्रयोजन हिंसादान आदि का निरोध करके अणुव्रतों को ही पुष्ट किया जाता है। पांच ही अणुव्रत हैं, पांच ही अनर्थदण्ड हैं। एक-एक के त्याग के साथ एक-एक की संगति