Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रस्नकरण्ड श्रावकाचार
{ २२७ रूप से मर्यादित करना कहा है। यहां कर्म अर्थ में 'स्मृत्यर्थदयीशां कर्म' इस सूत्र से षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है । इस सूत्र का अर्थ है स्मृत्यर्थक धातुएँ तथा दय और ईश धातु के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
विशेषार्थ-कालका परिमाण करके नियत देश में सन्तोषपूर्वक रहने वाला श्रावक देशावकाशिकी कहा जाता है । समन्तभद्रस्वामी ने इस ग्रन्थ में कहा है कि दिग्नत में निश्चित किये गये विशाल देश का एवं कालका परिमाण करके प्रतिदिन अणुव्रतों को लेकर सीमित करना देशावकाशिकमत है । गृहों से सुशोभित ग्राम, क्षेत्र, नदी, जंगल या योजनों का प्रमाण यह देशाव काशिक की सीमा होती है। जैसे आज मैं अमुक व्यक्ति के घर जाऊंगा, अमुक गांव तक जाऊंगा, आज मैं अमुक व्यक्ति के खेत तक ही जाऊंगा, आगे नहीं। आज अमुक नदी तक ही जाऊगा, अमुक वन तक ही जाऊंगा, आज मैं पांच योजन अथवा दश योजन तक जाऊंगा, आगे नहीं। यह नियम श्रावकों को प्रतिदिन लेना चाहिए । आठ मील का एक योजन होता है। जैसे आज सडक पर मील और किलोमीटर के पत्थर गड़े रहते हैं, वैसे ही पहले एक-एक योजन की दूरी पर योजनस्तम्भ रहते थे। और अती पुरुष योजनों की मर्यादा उनके आधार से कर लेता था । आज किलोमीटर के पत्थरों के आधार से सीमा निश्चित कर सकते हैं ।।३।।६३॥
एवं द्रव्यावधि योजनावधिं चास्य प्रतिपाद्य कालावधि प्रतिपादयन्नाहसंवत्सरमृतुमयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च । वेशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधि प्राज्ञाः ॥४॥
देशावकाशिकस्य कालावधि कालमर्यादांप्राहुः । के ते? प्राज्ञाः गणधरदेवादयः । कि तदित्याह संवत्सरमित्यादि-संवत्सरं यावदेतावत्येव देशे मयाऽवस्थातव्यं । तथा ऋतुमयनं वा यावत् । तथा मासचतुमसिपक्षं यावत् । ऋक्षं च चन्द्रभुक्त्या आदित्यभुक्त्या वा इदं नक्षत्रं यावत् ।।४।।
__इस प्रकार देशावकाशिकन्नत की द्रव्यावधि और योजनावधि को बताकर अब कालावधि का प्रतिपादन करते हैं
[प्राज्ञाः] गणधरदेवादिक बुद्धिमान पुरुष [संवत्सरं] एक वर्ष [ऋतु] एक ऋतु-दो मास [अयनं] एक अयन-छह मास, [मासचतुर्मासपक्षम् ] एक माह, चार माह,