Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २३१ टोकार्थ-देशावकाशिकवत के पांच अतिचार कहते हैं- स्वयं मर्यादित क्षेत्र में स्थित रहकर 'तुम यह काम करो', इस प्रकार मर्यादा के बाहर भेजना प्रेषण नामका अतिचार है । मर्यादा के बाहर कार्य करने वालों के प्रति खांसी आदि शब्द करना शब्द नामका अतिचार है। मर्यादा के बाहर रहने वाले व्यक्ति से प्रयोजनवश आज्ञा देना कि 'तुम अमुक वस्तु लाओं' यह पानयन नाम का अतिचार है। स्वयं मर्यादित क्षेत्र में स्थित होकर मर्यादा से बाहर काम करने वालों को अपना शरीर दिखाना रूपाभिव्यक्ति नामका अतिचार है और उन्हीं लोगों को लक्ष्य करके कंकर पत्थर आदि फेंकना पुद्गलक्षेप नामका अतिचार है इस प्रकार ये देशावकाशिकचत के पांच अतिचार हैं।
विशेषार्थ-व्रत धारण करने का मूल उद्देश्य रागादिभावों को कम करना है, यदि व्रतों के अनुरूप रागादिभावों पर नियन्त्रण नहीं होता तो वहां व्रत भी निर्दोष नहीं पलते । दोषों को ही अतिचार कहते हैं । देशावकाशिकवत के अतिचारों को आचार्य ने इस प्रकार बतलाया है-जैसे किसी ने सीमा निर्धारित की कि 'मैं इतने समय तक अमुक स्थान पर नहीं जाऊंगा', परन्तु मर्यादा किये हुए देश से बाहर स्वयं न जा सकने से राग की उत्कटता से प्रयोजनवश मर्यादा के बाहर अन्य लोगों को भेजना प्रेषण नामका अतिचार है। चाहे वह स्वयं करे या करावे कोई विशेष अन्तर नहीं है। बल्कि स्वयं जाने से तो ईर्यापथ शुद्धि सम्भव है, दूसरा तो यह जानता नहीं इसलिये ईपिथ शुद्धि के अभाव में दोष ही लगता है ऐसा पं० आशाधरजी ने कहा है। यहां कृत की अपेक्षा व्रत को रक्षा और कारित की अपेक्षा उसका भंग है, इस प्रकार भंगाभंग की अपेक्षा यह प्रषण नामका अतिचार है । स्वयं तो मर्यादा के अन्दर स्थित है किन्तु मर्यादा के बाहर काम करने वालों को खांसकर अपनी ओर आकर्षित कर अपना प्रयोजन सिद्ध करना शब्द नामका अतिचार है। मर्यादा के बाहर ठेलीफोन आदि करना इसी में शामिल है । स्वयं मर्यादा के भीतर स्थित है और नियम होने से मर्यादा के बाहर जा भी नहीं सकता किन्तु अन्य को भेजकर मर्यादा से बाहर की किसी वस्तु को मंगाना आनयन नामका अतिचार है । तार या पत्र देकर ऑर्डर देकर कोई वस्तु मंगाना भी इसी अतिचार में गभित है । स्वयं मर्यादा के भीतर के क्षेत्र में स्थित रहकर मर्यादा के बाहर के लोगों को अपना रूप दिखाना अर्थात् मर्यादित स्थान में ऐसी जगह बैठ जाना कि मर्यादा के बाहर वालों को अपना रूप दिखे जिससे वे