Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ १९७ टोकार्थ-चरणमोहपरिणाम अर्थात भावरूप जो चारित्रमोह परिणति है जो महाव्रत के लिए कल्पित की गयी है। यहां पर प्रत्याख्यान शब्द से प्रत्याख्यानावरण द्रव्य क्रोध, मान, माया, लोभ का ग्रहण होता है, क्योंकि नामके एकदेश से सर्वदेश का ग्रहण होता है । जिस प्रकार 'भीम' पद से भीमसेन का बोध होता है, उसी प्रकार प्रत्याख्यान शब्द का अर्थ सविकल्पपूर्वक हिंसादि पापों का त्यागरूप संयम होता है । उस संयम को जो आवृत करे अर्थात जिसके उदय से यह जीव हिंसादि पापों का पूर्ण रूप से त्याग करने में समर्थ नहीं हो पाता है वे प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं । यह कषाय द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की है, पौद्गलिक कर्म प्रकृति द्रव्यकषाय है और उसके उदय से होने वाले परिणामभाव कषाय हैं । जब गृहस्थ के इन द्रव्यरूप क्रोधादि का इतना मन्द उदय हो जाता है कि चारित्रमोह के परिणाम का अस्तित्व भी बड़ी कठिनता से समझा जाता है तब उसके उपचार से महानत जैसी अवस्था हो जाती है। दिग्घ्रतधारी के मर्यादा के बाहर क्षेत्र में स्थल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के हिंसादि पापों की पूर्णरूप से निवृत्ति हो जाती है। इसलिए उसके अणुव्रत भी उपचार से महानत सरीखे जान पड़ते हैं, परमार्थ से नहीं। अत: द्रव्य क्रोधादि का मन्दोदय होने से भाव क्रोधादि का भी मन्दतरत्व सिद्ध होता है ।
विशेषार्थ-मोहनीयकर्म के दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय की अपेक्षा से दो भेद हैं। दर्शनमोहनीय आत्मा के दर्शन गुण का घात करता है और चारित्रमोहनीय आत्मा के चारित्र गुण का घात करता है । चारित्रमोहनीय के भी कषाय वेदनीय और नोकषायबेदनीय ऐसे दो भेद हैं । इनमें कषायवेदनीय के अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से सोलह भेद होते हैं। और नोकषायवेदनीय के हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुषवेद, नपुसकवेद की अपेक्षा नौ भेद हैं । इनमें अनन्तानुबन्धी कषाय आत्मा के सम्यक्त्वगुण का धात करती है । यद्यपि यह कषाय चारित्रमोहनीयरूप है तथापि इसके रहते हुए आत्मा में सम्यक्त्वगुण प्रकट नहीं होता । अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ देशचारित्र को नहीं होने देती । प्रत्याख्यानकषाय सकलचारित्र का घात करती है और संज्वलनकषाय यथाख्यातचारित्र प्रकट नहीं होने देती।
द्रव्यकर्म और भावकर्म के भेद से कर्म के भी दो भेद हैं। द्रव्यकर्म और भावकम में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। द्रव्यकर्म का उदय भावकर्म के उदय में