Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ २१७ अंगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर अवगाहना के धारक एक निगोद जीव के शरीर में सिद्धों तथा भूतकाल के समयों से अनन्तगूणे जीवों का निवास है । जिह्वा इन्द्रिय के अल्पस्वाद के लिए इन सब अनन्तजीवों का धात हो जाता है । मक्खन-जो दूध या दही को मथकर निकाला हुआ लोनी कहलाता है, इसमें भी अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उसी जाति के असंख्य स जीवों की उत्पत्ति हो मादी है। इसी प्रकार नीम आदि के रनों में भी त्रस जीवों का निवास है, केवड़ा आदि के फूलों में भी चलते उड़ते हुए अनेक अस जीव दिखाई देते हैं इसलिये श्रावकों द्वारा ये सभी बस्तुएं त्याज्य हैं ॥३६।।८५।।
प्रासुकमपि यदेवंविधंतत्त्याज्यमित्याहयवनिष्टं तबतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतवपि जह्यात् ।
अभिसन्धिकृता विरतिविषयाद्योग्यावतं भवति ॥४०॥ ४१||
'यदनिष्ट' उदरशूलादिहेतुतया प्रकृतिसात्म्यक यन्न भवति 'तव्रतयेत्' व्रतनिवृत्ति कुर्यात् त्यजेदित्यर्थः । न केवलमेतदेव ब्रतयेदपितु यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात्' । यच्च यदपि गोमूत्रकरभदुग्ध-शंखचूर्ण-ताम्बूलोद्गाललाला-मूत्र-पुरीष-श्लेष्मादिक-मनुपसेव्यं प्रासूकमपि शिष्टलोकानामास्वादनायोग्यं एतदपि जह्यात् व्रतं कुर्यात् । कुत एतदित्याह-अभिसन्धीत्यादि-अनिष्टतया-अनुपसेव्यतया च व्यावृत्त र्योग्यविषयादभिसन्धिकृताऽभिप्रायपूर्विका या विरतिः सा यतो व्रतं भवति ॥४०।।
जो पदार्थ प्रासुक होने पर भी इस प्रकार का है-अनिष्ट और अनुपसेव्य है, वह छोड़ने योग्य है, यह कहते हैं
(यत्) जो वस्तु ( अनिष्टं ) अनिष्ट-अहितकर हो (तद्) उसे (व्रतयेत्) छोड़े (च) और (यत्) जो (अनुपसेव्यं) सेवन करने योग्य न हो (एतदपि) यह भी (जह्यात्) छोड़े क्योंकि (योग्यात्) योग्य ( विषयात् ) विषय से ( अभिसन्धिकृता ) अभिप्रायपूर्वक की हुई (विरतिः) निवृत्ति (व्रतं) व्रत (भवति) होती है।
टोकार्थ-जो वस्तु भक्ष्य होने पर भी अनिष्ट, अहितकर हो प्रकृतिविरुद्ध हो अर्थात् उदरशूल आदि का कारण हो, उसे छोड़ देना चाहिए । इतना ही नहीं किन्तु गोमूत्र, ऊंटनी का दूध, शंखचूर्ण, पान का उगाल, लार, मूत्र, पुरीष तथा श्लेष्मादि वस्तुएं अनुपसेव्य हैं। शिष्ट पुरुषों के सेवन करने योग्य नहीं हैं इसलिए इनका भी