Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
८४ ]
रत्नकरण्ड थावकाचार मानस्य तन्निबन्धनस्मयस्यानुत्पत्तः। 'अथ पापानवोऽस्ति' पापस्याशुभकर्मणः आस्रवो मिथ्यात्वाविरत्यादिरस्ति तथाप्यन्यसम्पदा कि प्रयोजनं । अग्रे दुर्गतिगमनादिकं अवबुद्धयमानस्य तत्सम्पदा प्रयोजनाभावतस्तत्स्मयस्य कर्तु मनुचितत्वात् ।।२७॥
कुल, ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न मनुष्यों के द्वारा मद का निषेध किस प्रकार किया जा सकता है । यह कहते हैं
(यदि) यदि (पापनिरोधः) पापको रोकने बाला रत्नत्रय धर्म (अस्ति) है (तहि) तो (अन्यसम्पदा) अन्य सम्पत्ति से (किं प्रयोजनम् ) क्या प्रयोजन है (अथ) यदि (पापासव) पापका आस्रव (अस्ति) है (तहि) तो ( अन्य सम्पदा ) अन्य सम्पत्ति से (कि प्रयोजनम् ) बया प्रयोजन है ?
टीकार्थ-प्रश्न यह है कि कुल-ऐश्चर्य आदि सम्पत्ति से सहित मनुष्य मद को कैसे रोके ? उत्तर स्वरूप बतलाया है कि विवेकीजनों को ऐसा विचार करना चाहिए कि यदि मेरे ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों के आस्रव को रोकने वाले रत्नत्रय धर्म का सद्भाव है तो मुझे कुल-ऐश्वर्य आदि अन्य सम्पदा से क्या प्रयोजन है। क्योंकि उससे भी श्रेष्ठतम सम्पत्तिरूप रत्नत्रयधर्म मेरे पास विद्यमान है । इस प्रकार का विवेक होने से उन कूल ऐश्वर्यादि के निमित्त से अहंकार नहीं होता। इसके विपरीत यदि ज्ञानावरणादि अशुभकर्मरूप पाप का आस्रव हो रहा है--मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रवभाव विद्यमान हैं तो अन्य सम्पदा से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि उस पापात्रव से दर्गति गमन आदि फल की प्राप्ति नियम से होगी, ऐसा विचार करने से कूल ऐश्वर्य आदि का गर्व दूर हो जाता है ।
विशेषार्थ-इस जीव के सम्यग्दर्शन संयमादिक के द्वारा पापमिथ्यात्व असंयमादिक का निरोध हो जाने से तो संसार में बड़े से बड़ा, उत्तम से उत्तम ऐसा कोई वैभव नहीं, जो प्राप्त न हो सके, अर्थात् उसे तो स्वयं ही स्वर्गलोकादिक की महान विभूति, बिना पुरुषार्थ के प्राप्त हो जाती है । किन्तु सम्यग्दृष्टि जीब पंचेन्द्रिय की विषयरूप इस भौतिक सामग्री को पराधीन, दुःख की देने वाली, बन्ध का कारण समझकर उसमें लिप्त नहीं होता, इस सम्पदा को वेदना का प्रतिकार मात्र मानकर उदासीनभाव से कड़वी औषधि के समान ग्रहण करता है । लौकिक सम्पदा को आत्महित में बाधक ही मानता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव नि:काङक्ष होने के कारण