Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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किल्विष पाप को कहते हैं, जब तक मिथ्यात्वभाव बना हुआ है तब तक पुण्य-पाप की श्रृंखला भी बनी रहती है कभी पुण्य की, तो कभी पाप की प्रधानता हुआ करती है जब कभी पुण्य का निमित्त मिल जाता है तो देवादिक अवस्थायें प्राप्त हो जाती हैं। गाय का निमित जाता है तो तिचादि अनिष्ट योनियाँ प्राप्त हो जाती हैं किन्तु संसार परम्परा का विच्छेद नहीं होता । वह तो मिथ्यात्व के छूटने पर ही हो सकता है अतएव जब तक मिथ्यात्व का अभाव नहीं होता तब तक अनेक प्रकार से संचय किया हुआ पुण्य भी वास्तव में अपना कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता । वह तो केवल 'चार दिन की चांदनी फेर अंधेरी रात' के समान ही है । इस प्रकार सम्यम्दर्शन के अभाव में होने वाले पुण्य-पाप दोनों ही संसार में परिभ्रमण कराते रहते हैं, सम्यग्दर्शन के सद्भाव में जो सातिशय पुण्य अर्जन होता है वह मोक्ष मार्ग में सहायक बनता है। श्रेयोमागं में काम करने वाले सभी गुण धर्मों को सम्यग्दर्शन की अपेक्षा है, अपेक्षा ही नहीं अनिवार्यता भी है। क्योंकि इसके बिना कोई गुण धर्म इस जीव को संसार समुद्र से पार नहीं कर सकता है। कुत्ता एक निकृष्ट प्राणी है और देव उत्कृष्ट है, अपि शब्द से धर्म और पाप के फल में क्या अन्तर है इस बात को बतलाते हुए कहा है कि कुत्ता जैसा निकृष्ट प्राणी भी धर्म के प्रभाव से देव की उत्कृष्ट पर्याय को प्राप्त कर लेता है । और देव पाप के निमित्त से कुत्त े की नीच योनि में उत्पन्न हो जाता है । भवनत्रिक तथा दूसरे स्वर्ग तक के देव तो एकेन्द्रियों में आकर उत्पन्न हो जाते हैं और अनन्तकाल तक स्थावर जीवों को योनियों में परिभ्रमण करते रहते हैं । तथा बारहवें स्वर्ग तक के देव पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में आकर पैदा हो जाते हैं ।
इस प्रकार जब तक अन्तरंग में मिथ्यात्व का उदयरूप प्रधान कारण विद्यमान है तब तक जीव नाना प्रकार से पाप प्रवृत्ति करता हुआ संसार से पार नहीं हो सकता है । इस प्रकार धर्म की महिमा जान कर उसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए और अधर्म से जो कटु फल मिलता है, उसे जानकर उसका त्याग करना चाहिए ||२६|| तथानुतिष्ठता दर्शनम्लानता मूलतोऽपि न कर्त्तव्येत्याहभयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम् ।
प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥ ३०॥
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'शुद्धयो' निर्मलसम्यक्त्वाः न कुर्युः । कं ? ' प्रणामं' उत्तमांगेनोपनति ।
'विनयं चैव' कर मुकुल प्रशंसादिलक्षणं । केषां ? कुदेवागमलिंगिनां । कस्मादपि ?