Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ११९ उस अवधि के अनन्तर ही शिवरूप अवस्था को अवश्य ही प्राप्त हो जाता है तथा संसारावस्था में पायी जाने वाली क्षय परम्परा का शिवपर्याय में सर्वथा अभाव हो जाता है । आशय यह है कि इस अवस्था के सिद्ध हो जाने पर यह जीव पूनः कभी आयु कर्म का बन्ध नहीं करता, जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, सदा-सदा के लिए कर्म मुक्ति हो जाने से हमेशा शिवरूप ही रहा करता है। वेदनीय कर्म के उदय से संसारावस्था में पायी जाने वाली क्षुधा आदि बाधाओं का पूर्ण अभाव हो जाने से अव्याबाध सुख की प्राप्ति हो जाती है । इतना ही नहीं अपितु उनके एक असाधारण अन्तरंग कारण वेदनीयकर्म की निश्शेषता के निमित्त से प्रकट होने वाली निराकुलता को भी व्यक्त करता है । शिवपर्याय शोक, भय और शंका इन दुर्भावों से सर्वथा रहित है । मोहनीय कर्म के अभाव से अनन्त सुख, सम्यक्त्व और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने से अनन्तज्ञान और दर्शनावरण कर्म के अभाव से अनन्त दर्शन प्रकट हो जाते हैं । इस प्रकार चार घातिया कर्मों के अभाव से चार अनन्तचतुष्टय प्रकट होते हैं, तथा शेष वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अधातियाकर्मों के अभाव से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और अव्याबाध, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व तथा अगुरुलघुत्व गुण प्रकट हो जाते हैं।
सर्व प्रथम दर्शनमोह का अभाव हो जाने पर सम्यग्दर्शन के हो जाने से भूमि शुद्ध हो जाती है और बीज में अंकुर के उत्पादन की योग्यता आ जाती है। किन्तु इतने मात्र से ही वृक्ष उत्पन्न होकर फल हाथ में नहीं आ जाता है, उसके लिए अन्य भी अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं । वह प्रयत्न योग और चारित्र है।
विवक्षित गुणस्थानों में चारित्र का क्षेत्र थोड़ा नहीं बहत बड़ा है। सम्यक्त्वोत्पत्ति के बाद चौथे गुणस्थान से ऊपर दश गुणस्थानों में चारित्र का ही प्रभूत्व है तथा सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा होने में तपश्चरणरूप चारित्र का ही प्रबल साहाय्य काम किया करता है। सर्वोत्कृष्ट चारित्र-जिनलिंग धारण करके हो जीव अनन्य शरण होकर सम्यक्त्व की आराधना करते हैं और चारित्र मोहनीय कर्म का नाश करते हैं, तत्पश्चात् तीन घातिया कर्मों के नाश के प्रयत्नरूप सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं और घातिया कर्मों का समूलरूप से निर्मूलन कर देते हैं। पश्चात् व्यपरत क्रियानिवर्ती ध्यान के द्वारा शेष अधातिया कर्मों को एक झटके में नष्ट कर सर्वोत्कृष्ट अन्तिम परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं। यह निर्वाण पद भी परम अरहन्त