Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड धावकाचार
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होते हैं । चारित्र के द्वारा ही आते हुए कर्मों का संवर होता है और पूर्व सचित कर्मा की निर्जरा होती है ।।४॥५०॥
तत्र विकलमेव तावच्चारित्रं व्याचष्टेगृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणु-गुण-शिक्षावतात्मकं चरणम् । पञ्च-त्रि-चतुर्भेवं त्रयं यथासंखघमाख्यातम् ॥ ५॥
'गृहिणां' सम्बन्धी यत् विकलं चरणं तत् 'वेधा' त्रिप्रकारं । 'तिष्ठति' भवति । कि विशिष्टं सत् ? 'अणुगुणशिक्षावतात्मक' सत् अणुव्रतरूपं गुणवतरूपं शिक्षाव्रतरूपं सत् । अयमेव । तत्प्रत्येकं । 'यथासंख्य' । 'पंचत्रिचतुर्भदमाख्यातं' प्रतिपादितं । तथाहि अणुव्रतं पंचभेदं गुणवतं त्रिभेदं शिक्षावतं चतुर्भेदमिति ॥५॥
अब, विकलचारित्र का ब्याख्यान करते हैं
(गृहिणां) गृहस्थों का (चरण) विकलचारित्र ( अणुगुण शिक्षावतात्मक ) अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतरूप { सत् ) होता हुआ ( श्रेधा ) तीन प्रकार का (तिष्ठति) है और (त्रयं) तीनों ही। (यथासंख्यं) क्रम से (पञ्चत्रिचतुर्भेदं) पाँच, तीन और चार भेदों से युक्त (आख्यातं) कहे गये हैं।
टोकार्थ--गृहस्थों का जो बिकलचारित्र है वह अणुवत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत के भेद से तीन प्रकार का है। उन तीनों में प्रत्येक के क्रम से पांच भेद, तीन भेद और चार भेद कहे गये हैं । अर्थात् पँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतरूप भेद जानने चाहिए।
विशेषार्थ--जो गृहबास छोड़ने में समर्थ नहीं हैं ऐसे सम्यादृष्टि घर में रह कर पंच अणुवत–१ अहिंसाणुव्रत, २ सत्याणुव्रत, ३ अचौर्याणुव्रत, ४ ब्रह्मचर्याणुव्रत और ५ परिग्रह परिमाणाणुव्रत । तीन गुणवत-१ दिग्वत, २ अनर्थदण्डव्रत और ३ भोगोपभोगपरिमाण व्रत । तथा चार शिक्षाव्रत-१ देशावकाशिक, २ सामायिक, ३ प्रोषधोपवास और ४ बयावृत्य; इन बारह प्रकार के विकल चारित्र-देशचारित्र का परिपालन करते हैं । इनमें पंच अणुव्रत और शेष सात को शील कहते हैं ।
मैं सम्यग्दर्शनपूर्वक निरतिचार पाँच अणुव्रतों का पालन करूगा इस अभिप्राय से वह तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का भी निरतिचार पालन करता है तथा